मेरे इस पत्र की तिथि देख कर तुम सोचती होगी कि इससे दो दिन पहले ही तो फ़ोन पर बात हुई थी,फिर यह पत्र क्यों?… बेटी, इस पत्र में जो कुछ लिख रहा हूं, वह फोन पर सम्भव नहीं था। इस पत्र की प्रेरणा मुझे दो बातों से मिली। सुबह सड़क पर गिरे कुछ काग़ज़ मिले जिन में किसी पिता के मर्म-स्पर्शी उद्गार भरे थे। ऐसा लगा जैसे कि उसकी
आत्मा उन्हीं काग़ज़ों के पुलिंदे के इर्द-गिर्द भटक रही हो। दूसरे, स्वः पं० नरेन्द्र शर्मा की इन पंक्तियों को पढ़ कर ह्रदय विह्वल हो उठा:
‘ सत्य हो यदि, कल्प की भी कल्पना कर, धीर बांधूँ,
किन्तु कैसे व्यर्थ की आशा लिये, यह योग साधूँ !
जानता हूँ, अब न हम तुम मिल सकेंगे !
आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे ?
….. कितना साम्य था उन फेंके हुए काग़ज़ों के शब्दों और इस कविता की पंक्तियों में! बेटी, तुम्हें और सस्पेन्स में नहीं रखना चाहता। इंग्लैण्ड की राजधानी लन्दन और कैनेडा की राजधानी औटवा की दूरी ने तुम सब को देखने की अभिलाषा को जैसे किसी अञ्जान वादी में भटका दिया हो - मैं स्वास्थ्य के कारण और तुम कार्य-वश तथा अवकाश के अभाव के कारण, दोनो ही अपने अपने शहर को नहीं छोड़ पाते।
तुम जिस प्राइमरी स्कूल में पढ़ती थीं, उसी के पास वुडसाइड पार्क ट्यूब स्टेशन के साथ वुडसाइड अवेन्यू पर प्रायः घूमने जाता हूं जहां दोनो ओर सुन्दर वृक्षों की शृंखला है और रास्ते में वही स्कूल तुम्हारे बचपन की यादें ताज़ा करती रहती है। लगभग उसी समय पर एक पुलिस ऑफिसर भी नित्य-दिन की गश्त पर मिल जाता है। बड़ा मिलनसार और स्वभाव से हंस-मुख है। बातों में हंसी-मज़ाक भी कर लेता है।
आज रोज़ की तरह प्रातः सैर के लिये उसी वुडसाइड अवैन्यू पर जा रहा था कि काग़ज़ों के एक पुलन्दे पर पाँव की हल्की सी ठोकर लगी। मैं वहीं रुक गया। अपनी छड़ी से उसे हिलाया और झुक कर उठा लिया। देख ही रहा था कि इस में क्या है, वही पुलिस ऑफिसर भी पास आ गयाः‘ हैलो सीनियर! क्या कोई खज़ाना मिल गया है?" मुस्कुरा कर बोला। पैन्शनर (सीनियर सिटिज़न) के नाते वह मुझे मज़ाक में सीनियर ही कह कर सम्बोधित करता था। मैं ने भी परिहास की भाषा में उत्तर दियाः ‘ आप ही देख कर बताओ कि कहीं किसी आतंकवादी का रखा हुआ बम तो नहीं है?’ उसने हंसते हुए पुलन्दा मेरे हाथ से ले लिया और देख कर कर कहने लगाः ‘ लोग इतने सुस्त और लापर्वाह हो गये हैं कि रद्दी के काग़ज़ बराबर में रखे हुए डस्ट बिन तक में भी नहीं डाल सकते ! लाओ, मैं ही डाल देता हूं। मैं उन काग़ज़ों को अपने हाथों में उलट-पलट ही रहा था कि देखा कि पत्रों के साथ एक विवाह-प्रमाण पत्र भी था। मैं ने उसका ध्यान इस की ओर आकर्षित किया। कुछ क्षणों के लिये तो वह स्तब्ध रह गया। चेहरे पर आर्द्रता का भाव झलक उठा-‘ ये किसी की धरोहर है। मैं इसे पुलिस-स्टेशन में जमा करवा दूंगा।‘ मेरी उत्सुकता और भी बढ़ गई। मैं ने उन पत्रों को देखने की इच्छा प्रकट की तो उसने कहा कि यह बण्डल क्योंकि तुम्हें ही मिले हैं, तुम पुलिस-स्टेशन जा कर देख सकते हो और यदि छः मास तक किसी ने भी इस के स्वामित्व का दावा नहीं किया तो हो सकता है कि यह तुम्हारी ही सम्पत्ति मानी जाये।
उत्सुकता-वश, मैं दोपहर के समय पुलिस-स्टेशन चला गया। संयोगवश स्वागत-कक्ष में वही ऑफिसर ड्यूटी पर था। औपचारिक कार्यवाही के पश्चात मैं एक एकांत कोने में बैठ कर पढ़ता रहा। बेटी! ये मुड़े-तुड़े पुराने साधारण से दिखने वाले काग़ज़ एक हृदय-स्पर्शी पत्रों का संग्रह था जिस में कुछ पत्र प्रथम विश्व-महायुद्ध में युद्धस्थल से किसी सैनिक ‘राइफलमैन जॉर्ज वाइल्ड‘ ने अपनी इकलौती प्यारी बेटी ‘ऐथल ’ के नाम लिखे थे। कैसी विडम्बना है! उसके उद्गार, उसके अरमान, उसकी सिसकती वेदना- आज भग्न-स्वप्न की तरह सड़क के किनारे इन काग़ज़ों में सिसक रहे थे! पत्र पेन्सिल से पीले काग़ज़ों पर लिखे हुए थे। इन पत्रों में आतताईयों का वर्णन था। वह अभागा सैनिक ऐसे स्थान पर था जिसे ‘ नो मैन लैण्ड ‘ कहा जाता था जहां केवल चूहे , औषधियों का अभाव, बीमारियों का बाहुल्य और वह वनस्पतियां जो गाउट, फुन्सी-फोड़े, विसूचिका, अन्धौरी और ददौरी आदि के अतिरिक्त कुछ नहीं देती थी।
वह अपनी बेटी को सानत्वना देते हुए लिखते हैं, ‘ मेरी बेटी! तुम भाग्यशाली हो। उन व्यक्तियों की ओर दृष्टि डाल कर देखो जिनके पिता, भाई, पति, पुत्र-पुत्री… युद्ध की वीभत्स-घृणित-भूख को मिटा ना सके। इसीलिये ही कहता हूं कि तुम कितनी भाग्यवान हो कि अभी भी तुम्हरा पिता इन पत्रों को लिखने के लिये जीवित है।
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बेटी ऐथल को अपने अन्तिम पत्र में लिखते हैं, ‘ मैं हर समय घर लौटने का स्वप्न देखता रहता हूं कि तुम और शारलौट (उसकी पत्नी) दरवाज़े पर मेरी बाट निहारते होंगे और मैं गले लगा कर, रो रो कर अपने दमित उद्गार और उन यातना भरे क्षणों को खुशियों के आँसुओं के सैलाब में बहा दूं! किन्तु ईश्वर ही जानता है कि भविष्य में तुम से मिलने की यह तृषित-आकांक्षा पूरी हो सकेगी या नहीं। मैं सदैव आशान्वित-जीवन में रहता हूं। ‘
किन्तु दुर्भागय और आशा के युद्ध में दुर्भाग्य ही जीत गया। १९ नवम्बर १९१७ में शत्रु के एक लड़ाकू-वायुयान के आक्रमण में घायल होने के कारण फ्रांस में न० ६३, ‘केज़ुअलटी क्लीयरिंग स्टेशन’ में भर्ती हो गया। डॉक्टर और सर्जन उसे बचा न सके। १० दिन के पश्चात अपनी प्यारी बेटी और प्रिया शारलॉट से मिलने की अधूरी अभिलाषा अपने साथ ले कर इस वैषम्य से भरे संसार से ३९ वर्ष की आयु में सदैव के लिये विदा ले ली!
उसकी पत्नी को युद्ध-कार्यालय की ओर से एक औपचारिक सूचना मिली कि तुम्हारा पति जो लन्दन रेजिमेण्ट की ९वीँ बटालियन में सेनिक था उसके शव को बेल्जियम में ‘हैरिंगे मिलिट्री कब्रिस्तान‘ में अन्तिम संस्कार सहित दफ़ना दया गया।
इन पत्रों के साथ एक अखबार की कतरन भी थी जिसमें पश्चिमी रण-स्थल का नक्शा था। साथ ही था जॉर्ज वाइल्ड तथा शारलॉट एलिज़ाबेथ हॉकिन्स के विवाह का प्रमाण-पत्र जिसके अनुसार उन दोनो का विवाह ८ जुलाई १९०० में लन्दन के चेल्सी-क्षेत्र में सेन्ट सिमन्स चर्च में समपन्न हुआ था।
आज इन अमूल्य लेख्य-पत्रों को ठोकरों में स्थान मिला। पुलिस ने साल्वेशन आर्मी और अन्य संस्थाओं से सम्पर्क किया है किन्तु इन दुख भरे दस्तावेज़ के उत्तराधिकारी की खोज में अभी सफलता नहीं मिली।
( बेटी, कभी कभी न जाने क्यों मेरे मन में नकारात्मक विचार आ जाते हैं कि क्या मेरे पत्रों का भी यही हाल होगा!!)
प्यार भरे आशीर्वाद सहित
तुम्हारे डैडी
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यह पत्र मिलते ही मेरी बेटी ने फौरन् ही टेलीफोन किया और कहाः
‘ डैडी, जिस प्रकार आपने लन्दन के वातावरण में भी मुझे इस योग्य बना दिया कि आपके हिन्दी में लिखे पत्र पढ़ सकती हूं और समझ भी सकती हूं। उसी प्रकार मैं आपके नाती को हिन्दी भाषा सिखा रही हूं जिससे बड़ा हो कर अपने नाना जी के पत्र पढ़ सके। आपके सारे पत्र मेरे लिये अमूल्य निधि हैं।मेरी वसीयत के अनुसार आपके पत्रों का संग्रह उत्तराधिकारी को वैयक्तिक संपत्ति के रूप में मिलेगा!‘
सुन कर मेरे आंसुओं का वेग रुक ना पाया! मेरी पत्नी ने टेलीफोन का रिसीवर हाथ से ले लिया…!
महावीर शर्मा
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