आज ही परेशान क्या कल नहीं थे,
प्रतिकूल परिस्थितियों से निकले नहीं थे।
जीवन एक नौका मझधारें रोज आतीं,
उठे गिरे संभले पर रहे हम वही थे।
गिरकर उठना-उठकर गिरना ही जिन्दगी,
फंसे चक्रव्यूह में जिससे निकले नहीं थे।
काश! कोई अभिमन्यु फिर से जन्मता,
संघर्षी मिले जीवन क्या प्रतिफल सही थें।
जब जान पाया यही सब परिस्थितियां,
सुखद स्थिति आई पर सपने नहीं थे।
समाज के दुष्चक्र में फंसे क्यों ‘भारती’,
उलझतें हैं वही सब जो कभी निकले नहीं थे।
शशांक मिश्र ’भारती’
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