मैंने-
बहुत सीमित करली हैं
अपनी आकांक्षाए
काट चुका हंू हृदय के
महत्वाकांक्षा के उस हिस्से को
और-
अपने स्वप्नों की ललित आशाओं को,
स्मरण नहीं हैं
अपनी-
इन्द्रधनुषी कल्पनाएं-
और-
न ही गीत की मधुर ध्वनि
हास भी
छोड़ दिया है मैंने
और अब-
उत्सुकता भी नहीं है
मुझे-
किसी आशीर्वाद की
जब से संकुचित करली हैं,
अपनी-
आकांक्षाएं।
शशांक मिश्र ’भारती’
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