(प्रस्तुत रचना शाहजहांपुर गौरव दादा राजबहादुर विकल नें वर्ष 2007 महाशिवरात्रि के पावन अवसर पर गोला गोकर्णनाथ-खीरी में लिखी थी तथा अप्रैल 2007 में अपने निवास पर भेंट के अवसर पर मुझे सौंपी जिसको मैंने देवसुधा अ.भा.कविता संचयन.2010 में अंक समर्पण के साथ छापा।)
कल्याण मनुजता का करते ,
हे शिव शंकर तुमको प्रणाम
कण-कण में ज्योतित अलोकित
हे प्रविनश्वर तुमको प्रणाम
पीकर जग का सबकाल कूट
जग को अमृत देते आए
मानव दानव देवता
सभी की नौकाएँ खेते आए।
विष पीने को गोलार्द्ध युगल को
तुमने प्याला बना लिया
मिट्टी का अंग राग मलकर
सर्पों को माला बना लिया।
चट्टानों पर सोना सीखा
विष पीकर अमृत दान किया
सबसे भावुक हो सर्वसुलभ
काँटों का भी सम्मान किया।
समझते पाँचों तत्व सहे
भस्मासुर को वरदान न दें
सबको पहचाने।
बिना किसी को भी अपनी पहचान न दें
कलियुग का कवि विकल तुम्हें
रोकर आवाज लगाता है
सबकुछ खोकर सब कुछ खोने वाले को
अर्ज सुनाता है।
निष्ठा घायल श्रोता रोती
विश्वास तुम्हारा नहीं रहा
अब कहाँ करोगे चिंतन तुम
कैलाश तुम्हारा नहीं रहा।
हम तरस रहे हैं मान सरोवर
के दर्पण से पानी को
लहरों में गातें हंसों को
पावन कविता कल्याणी को।
तुमने खोला तीसरा नयन
वन की वासना जला डाली
सौंदर्य-बोध पर न्योछावर होती
कामना जला डाली।
जब मानसरोवर छिना तीसरा-
लोचन खोल नहीं पाए
क्या ताण्डव नर्तन भूल गए
प्रलयंकर बोल नहीं पाए।
तोड़ो समाधि हे महाकाल!
प्रलयंकर स्वर भरना होगा
पर्वत पर रोती पार्वती
अब तो ताण्डव करना होगा।
चन्द्रमा फेंक दो मस्तक से
शीतलता करती शौर्य हरण
जड़ताओं के सघंनाधकार को
चीर उगाओ बाल करण।
नवयुग के कवि का मेघदूत
कैलास किस तरह जाएगा
मानस के हंसों की वाणी को
भिगो नहीं वह पाएगा।
कायरता है दुश्मन से आज्ञा लेने
को मजबूर हुए
जब शक्ति नहीं तो भक्ति व्यर्थ
सब सपने चकनाचूर हुए।
अपना आकाश छिनाकर हम
चन्द्रमा पराया पूजेगें
मंदिर तो पूरा छिना
दूर से मोहक छाया पूजेंगे।
कवि की वाणी सुनकर सहसा
भीतर वाला शिव उठा
लपटों के हाथों से जीवन का
हर वातायन खेल उठा।
शासक हों हे यदि शक्तिहीन
मूर्तियाँ तभी टूटा करतीं
मन्दिर में बूम फूटा करते
तकदीर बनी फूटा करतीं।
शासक यदि हुए नपुंसक
अपना पता नहीं रह पाता है
यदि शक्ति नहीं तो मंन्दिर में
देवता नहीं रह पाता है।
संगठित देश का बच्चा-बच्चा
जब सैनिक बन जाएगा
पूरा भारत होगा अखण्ड
मुरदा चिन्तन घबराएगा।
चिन्तन में आग नहीं होगी
सपना साकार नही होगा
कैसे जीवित रह पाओगे
कोई आधार नहीं होगा।
चंचल प्रवाह लहरें चंचल
तटके तरु कब छाया करते
तैराक पाप तर गए निकम्मे
पुण्य डूब जाया करते।
आदर्शों का वध कर डाला
सपने सूली पर टांग दिए
ईमान विदेशों में बेचा
बलिदानों के पथ त्याग दिए।
मलयालिन के घायल पंखों
पर गन्ध सवार हुई जाती
बारुद बिछाते हैं पागल
बगिया बेकार हुई जाती।
कुछ कटे पेड़ ऊपर से ही
पर जड़े नहीं कट पाई हैं
भौतिक सामान सभी बाँटें
पर प्रकृति नहीं बँट पाई है।
सब कटा-फटा है मानचित्र
इसको पूरा करना होगा
शिव के उपासकों जाग पडों!
जीना है तो मरना होगा।
तपती रोली बल का कुंकुम
बलिदान के अक्षत होंगे
पर्वत पर रोती पार्वती
अब तो शिव ताण्डव रत होंगे।।
प्रस्तुतकर्ता:-शशांक मिश्र भारती
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