Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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बच्चे क्यों नहीं नजर आते बच्चे

 

वर्तमान समय में समाज में समाज की दशा दिशा व विविध दूरदर्शन चैनलों कामिक्सों आदि के प्रभाव ने बच्चों को शैशवस्था से सीधे युवा बनाने का काय्र आरम्भ कर दिया है। अकल्पनीय घटनाओं पर आधारित धारावाहिक कार्टून फिल्में मनोरंजन के नाम पर फूहड़ता माता-पिता के आपसी सम्बन्ध परिवार का वातावरण पड़ोस मित्रमण्डली बच्चों के लिए समय जहां उनमें समय पूर्व परिवत्रन ला रहे हैं। वहीं परिवार में व्यक्तिवाद की प्रधानता एकाकी परिवार बुर्जुगों की उपेक्षा उनका अनुभव -ज्ञान न मिलना बनावटीपन नगरीकरण आदि भी बच्चों को अपना बचपन भूलने को विवश करते हैं
कई बार बालकों को लेकर उनके अभिभावकों की अधिकाधिक महत्वाकांक्षा के चलते भी स्वंय चाहे अनचाहे बदलना पड़ता है।जब अभिभावक उनकी आयु- वर्ग की उपेक्षा कर उनको विद्यालय से घर बाजार तक विविध प्रतियोगिताओं खेलों पार्टियों समारोहों में सबसे आगे देखना चाहते हैं। जिससे बच्चे का जीवन उसकी दिनचर्या अतिव्यस्त मशीन सी हो जाती है। वह अपने ष्शारीरिक- मानसिक विकास के सन्तुलन मापदण्डों को नहीं सोंच पाता और न ही ऐसे स्वस्थ खेलकूदों भ्रमण पठन –पाठन सीखने के लिए समय निकाल पाता है। जो थोड़ा बहुत समय बचता भी है उसे क्रिकेट जैसे उबाऊ खेल दूरदर्शन कम्प्यूटर गेम आदि चट कर जाते हैं। ज्ञानवर्धक पुस्तकों पत्र-पत्रिकाओं के लिए तो न समय होता है और न रुचि। बल्कि अभिभावक भी इन पर पैसा खच्र करने से बचने लगे हैं।
जिससे वह अनायास बड़े तो बन जाते हैं। उनके अन्दर का श्रुत भाव भी क्षीण हो जाता है।परिणामतः वह कोई बात ध्यान से न सुन पाते हैं न ग्रहण और न ही सुनकर मौलिक अभिव्यक्ति में कुषल हो पाते हैं। इसे सबके अतिरिक्त कई बार अपने से अधिक आयु के बच्चों युवकों का साथ रहन -सहन व्यवहार बोलचाल उनको बड़ा बना देता है। उनकी आदतों रहन - सहन व्यवहार बोलचाल बदल देता है। यदि कुसंगति हुई तो दुष्परिणाम भी सामने आते हैं।
अब प्रश्न उठता है कि बच्चों को बच्चों की तरह ही क्यों न रहने दिया जाये। उनकी मौलिक वृद्धि को विज्ञान प्रौद्योगिकी से हाईब्रेड सब्जियों सा न बदला जाये अन्यथा यह जबरन छीना हुआ बचपन भयावह परिणाम देगा।
इतिहास कहेगा -

 

 


बड़े हुए तो क्या हुए जैसे पेड़ खजूर ]
पन्थी को छाया नहीं फल लागे अति दूर।

 

 

 

शशांक मिश्र ’भारती’

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