राष्ट्रीय युवा दिवस पर विषेष:-
भागो मत, संघर्ष करो !
शशांक मिश्र भारती
संघर्ष का दूसरा नाम ही जीवन है बिना संघर्ष के जीवन जीना मरकर के चले जाना मनुष्योचित कार्य नहीं; कहा जा सकता है और न ही जीवन के उद्द्ेष्यों की सार्थकता।जिसने संघर्षी जीवन का अमोलक पिया, इस संसार में जीवन को जिया वही आगे चलकर इस संसार में श्रेष्ठ मानव के रूप में स्थापित हुआ।ऐसे लोगों ने संसार में अपने को ही नहीं जीता; अपितु संसार में अपनी जीत की पताका भी फहरायी।विविध संस्कृति-समूहों, भाषाओं को अपने अनुरूप मोड़ दिया।इतिहास इनका साक्षी है तथा इन सभी से प्रेरणा प्राप्त करता है।ऐसे महापुरुषों में टैगोर, दयानन्द सरस्वती, अरविन्द घोष, स्वामी विवेकानन्द, षंकराचार्य, बुद्ध, रामानुज, चैतन्य, निम्बार्क, अरस्तू, प्लेटो, कान्ट, हैगेल, मूसा, सुकरात, मुहम्मद साहब, ईसा आदि का नाम लिया जा सकता है।इन सभी ने जो दिया उससे सारा विष्व परिचित ही है और अनेक धारणायें, संस्कृति, भाषा, सम्प्रदायों के रूप में इन सभी की चल रही है।
स्वामी विवेकानन्द के सम्बन्ध में एक बार सुभाषचन्द्र बोस ने कहा था-‘‘कि वे अति उच्च आध्यात्मिक उपलब्धि योगी थे, जिन्होंने सत्य का प्रत्यक्ष साक्षात्कार किया था एवं अपने जीवन को देष के नैतिक एवं अध्यात्मिक उन्नयन तथा समस्त मानवता के कल्याणार्थ समर्पित कर दिया था।मैं इन्हीं में उनका वर्णन करना पसन्द करूंगा।यदि वे आज जीवित होते तो मैं उनके श्री चरणों में होता।’’
कितना अगाध विष्वास था नेताजी को स्वामी जी पर।देष में ही नहीं उनकी अपने कर्मयोगी व्यक्तित्व से विदेषों में भी छाप थी। सन् 1893 से 1896 तक स्वामी जी ने अमेरिका में अपने ओजस्वी व्याख्यानों, प्रवचनों तथा उपदेषों द्वारा समस्त पाष्चात्य जगत को षिक्षा दी जिससे विलियम जेम्स अमेरिकी दार्षनिक, रूसी पुरुष टालस्टाय, जर्मन वेदान्ती पाॅल टायसन तथा विष्व विश्रुत वेदज्ञ महात्मा मैक्समूलर तक प्रभावित हुए बिना न रह सके।साथ ही समस्त भारतवर्ष का सीना गर्व और सम्मान से फूल उठा।अमेरिका से वापसी के बाद तो उनका स्वागत कोलम्बों से अल्मोड़ा तक स्थान-स्थान पर हुआ था।
उनका एक मंत्र था- उठो! जागो!! वह कहते थे उठो साहसी बनो, वीर्यमान होओ, सब उत्तरदायित्व अपने कन्धे पर लो।यह याद रखो कि तुम स्वंय अपने भाग्य के निर्माता हो।तुम जो कुछ बल या सहायता चाहो सब तुम्हारे भीतर ही विद्यमान है।स्वामी जी अमेरिका-यूरोप आदि जहां भी गये जिसने भी उनके व्यक्तित्व व कृत्तित्व को अंष मात्र भी पा लिया।वह उनके प्रति समर्पित हो गया। उनको अपना सर्वस्व मानने लगा।भारत के प्रत्येक वर्ग की प्रगति का सपना उन्होंने देखा था।भारत की खोयी प्रतिष्ठा को जगाने के लिए उसे पुनः विष्व पटल पर स्थापित करने के लिए वह अमेरिका गये थे।जिससे जो प्रारम्भ हुआ।उनकी यात्राओं ज्ञान प्रवाह का स्रोत देष-विदेष में निरन्तर चलता रहा। कोई भी बाधा उनके अध्यात्मिक मार्ग में अवरोध न बन सकी।उनके जीवन का निर्माण ही बाधाओं पर विजय प्राप्त कर हुआ था।
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