1ः-
दिन-रात सा
नर और नारी हैं
बने पूरक।
2ः-
कीर्ति पताका
फल पराक्रम का
श्रम सीकर।
3ः-
यश की गति
संसार ढक देती
न अपयश।
4ः-
भूत पावन
गर्वित है अतीत
बनें भविष्य।
05ः-
गाथा बनती
प्रेरणा का न स्रोत
प्राण’kक्ति भी।
06ः-
राष्ट्र केा गीत
देता स्वाबलम्बन
न कि पराया।
07ः-
कदाचित ही
छू सके न हो नभ
बढ़े तो आगे।
08ः-
झुक जाना भी
श्रेष्ठ ही कहलाता
यदि डाली सा।
09ः-
बुल डोजर
झुग्गियां हैं गिराते
महल नहीं।
10ः-
जानकार ही
आजकल बनते
अनजान हैं।
11ः-
कृपालु दृष्टि
कभी न हटती
अपनों से है।
12ः-
कविता भी है
भावों से उपजती
हृदय के ही।
13ः-
मानव ग्रन्थि
सुलझाते रहते
रच कविता।
14ः-
हो निरर्थक
सर्वस्व है जाता
निरुद्देश्य।
15ः-
धरा बंजर
स्वार्थ है उग रहा
दानव मन।
16ः-
श्वानों की भौंक
मोड़ न पाती कभी
पथ सिंह का।
17ः-
व्यर्थ के राग
व्यसनी अनुराग
जीवन नष्ट।
18ः-
जन जन्मता
श्रेष्ठ मानवता को
मूल्यों के द्वारा।
19ः-
उगता शोर
दुर्गन्ध फैल जाती
अपने पराये की।
20ः-
नाम आंधी ही
परिणाम अलग
लाभ या हानि।
21ः-
अदालतें
दिखती है जनता
न कि न्याय।
22ः-
कचहरी में
कंगाली जनता की
शेष की चांदी।
23ः-
पैसे का मोल
जान सकता वही
जिसका हाथ।
24ः-
आप सबकी
सुनसुनसुन के
गयी कविता।
25ः-
मित्रता हो तो
अंगराज जैसी
अंगिका से भी।
26ः-
मानव कभी
आज भुला कर्तव्य
दानव अभी।
शशांक मिश्र ’भारती’
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