गैर जो कभी थे आज वह अपने हुए हैं,
अपना समझा जिनको वह विदकने लगे हैं।
माया ने आ डेरा बनाया है हर घर में,
कोई पीछे न छूटा सबके सपने लगे हैं।
बिलों से निकल घरों में आ गये अश्वसेन,
तन को खतरा तो था मन भी डसने लगे हैं।
चेहरे के उतार-चढ़ाव मौसम सा दिखते,
कुछ न उनको कहिये यूं ही हंसने लगे हैं ।
धीरे-धीरे उल्लू पहुंचे हर शाख पर,
कौए चिढ़कर हंसों से बहकने लगे हैं।
कभी यहां भी होती थी मित्रता की बातें,
दौर गया बदल पैग स्वार्थ के चलने लगे हैं।
समाज की प्रक्रियायें भी कुछ इस तरह,
जो जितने अधिक गंदे उतने उजले लगे हैं।
कभी विषधर दुत्कारा गया था ‘‘भारती’’,
अब तो हर घर में पलने-फलने लगे हैं।।
शशांक मिश्र ’भारती’
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