शशांक मिश्र भारती
कार्य का क्षेत्र कोई भी हो सन्तुष्टि का आधार कार्य का अधिकाधिक प्रतिफल होता है। उत्पादक यदि अपेक्षित उत्पादन चाहता है तो श्रमिक श्रम का मूल्य।अध्यापक की सन्तुष्टि थोड़ी पृथक है।वह शिक्षा प्राप्ति के साथ-साथ उसके उद्द्ेश्यों पर भी आधारित है।जब तक उद्दे्श्यों की पूर्ति नहीं होती; सन्तुष्टि कैसी ? महान शिक्षाविद विलियम जेम्स के अनुसार-’’शिक्षक का सर्वप्रथम कार्य उन आदतों को छांटना और सिखाना है, जो बालक के लिए सारे जीवन सबसे अधिक लाभप्रद रहे, शिक्षा सदाचार के लिए है और आदतें ही आचरण का निर्माण करती हैं।वहीं उद्देश्यों में मानवीय मूल्यों के विकास का जिम्मा शिक्षा को मानते हुए डा. सर्वपल्ली राधाकृष्णन का कथन है-शिक्षा का प्रयोजन यह नहीं है कि वह हमें सामाजिक परिवेश के उपयुक्त बना दें अपितु यह है कि वह बुराईयों से लड़ने में और एक पूर्णतर समाज के सृजन में हमारी सहायता करे। प्रगति के साधन अपने आप में कोई उद्देश्य नहीे हैं।शाश्वत को सांसारिक के आधीन करके, अनिवार्य को आकस्मिक करके, अन्त को क्षणिक के अधीन करके जीवन मूल्यों को विकृत करने की आदत को केवल सबल शिक्षा द्वारा रोका जा सकता है। शिक्षा सर्वोच्च जीवन मूल्यों के चुनाव की ओर उन पर दृढ़ रहने की पूर्व कल्पना करती है।‘‘ ऐसा ही कुछ कथन राष्ट्रपिता महात्मागान्धी का है प्राचीन सूक्ति सा विद्या या विमुक्तयें आज भी उतनी सत्य है जितनी पहले थी शिक्षा का आशय केवल आध्यात्मिक शिक्षा से ही नहीं है ,न ही विमुक्ति का आशय मृत्यु उपरान्त मोक्ष से है। ज्ञान में वह समस्त प्रशिक्षण समाहित है, जो मानव जाति की सेवा के लिए उपयोगी है और विमुक्ति का अर्थ है वर्तमान जीवन की सभी प्रकार की समस्याओं और पराधीनताओं से मुक्ति। इसी आदर्श की प्राप्ति के लिए किया गया ज्ञार्नाजन सच्ची शिक्षा है।’’ वहीं मुनि लोकप्रकाश लोकेश सर्वांगीण विकास का आधार मानते हुए जीवन विज्ञान का श्रीगणेश मानते हुए कहते हैं-‘‘शिक्षा जीवन के सर्वांगीण विकास का आधार है। शिक्षा के क्षेत्र में जितने प्रयोग अब तक हुए हैं जीवन विज्ञान उनमें मौलिक है। जीवन-मूल्यों की पुनः प्रतिष्ठा एवं व्यक्तित्व का पूर्ण विकास हो, उसके लिए जीवन विज्ञान विषय का शुभारम्भ किया गया है।’’ इसी तरह से कुछ साध्वी संघमित्रा का कहना है-विद्यार्थियों को प्रारम्भ से ही शिक्षा के साथ -साथ जीवन निर्माण संस्कार दिए जाने चाहिए जिससे उनका चारित्रिक एवं नैतिक विकास हो सके।’’
कतिपय शिक्षक श्रेष्ठ परीक्षाफल ही चरम सन्तुष्टि मान सकते हैं लेकिन मैं नहीं। मेरा दृष्टिकोण थोडा़ अलग है, उस माली की भांति जो अपेक्षित कांट -छांट से पौधों का उचित विकास ही नहीं करता; अपितु सही स्वरूप में लाकर आकर्षक भी बनाता है अर्थात् बालकों का सर्वांगीण विकास हो।इसके अन्र्तगत शारीरिक, मानसिक, भावात्मक, बौद्धिक और अध्यात्मिक विकास को सम्मिलित किया जाता है। यह कार्य कोई एक नहीं कर सकता, बल्कि शिक्षक, विद्यार्थी, अभिभावक, संस्था प्रधान के स्तर व वातावरण के सम्बन्धों को सुधार कर किया जा सकता है।कोई घटक अकेला चाहकर भी कार्य सन्तुष्टि नहीं पा सकता।मेरा भी अब तक के शिक्षण का यही निष्कर्ष है।सबसे बड़ी बाधा तो बार -बार पाठ्यक्रमों का बदलना, पुस्तकों का बच्चों तक समय से न पहुंचना और अभिभावकों में अपेक्षित जागरूकता न होना है।
वातावरणीय घटकों में सर्वाधिक प्रभावशाली है कक्षा-कक्षों का रख-रखाव, स्वच्छता व प्रार्थनास्थल की गतिविधियां, जो कि शिक्षक-शिक्षार्थी की मनोदशा को प्रभावित करती है।सभी घटकों के सहयोग के सम्बन्ध में महाकाव्य महाभारत में मिलता है-
आचार्यत् पादमादत्ते पदं शिष्य स्वन्मेधया।
पादमेकं स ब्रह्मचरिभिः पादकं काल क्रमेणहि।।
अर्थात् एक -चैथाई अधिगम शिक्षक से, एक चैथाई स्वाध्याय एवं प्रतिभा द्वारा, एक चैथाई मित्रों के साथ अन्तः क्रिया द्वारा तथा शेष समय के साथ अनुभव द्वारा सीखा जाता है।
इसमें हम देखें तो वर्तमान में शिक्षक के अतिरिक्त अन्य का योगदान धीरे -धीरे नगण्य होता जा रहा है।महाभारत के उक्त कथन के आधार पर यदि कहें तो भी शिक्षक तभी सन्तुष्टि पा सकता है जबकि शिक्षार्थी उसकी बातें ध्यान से सुनते हों, स्वाध्याय करते हों, अनुप्रयोग करते हों, जिज्ञासा पूर्ति को तत्पर हों तथा स्वंय पठन -पाठन व मनन की क्रिया में नियमित रूप से संलग्न हों।यदि इन पर विद्यार्थी व विद्या देने वाला खरा नहीं उतरता तो न शिक्षा का उद्द्ेश्य पूर्ण होगा और न ही शिक्षकों को सन्तुष्टि मिल सकती है।शिक्षा के उद्दे्श्यों के सम्बन्ध में राष्ट्रपिता बापू ने कहा था कि ‘‘शिक्षा का वास्तविक लक्ष्य चरित्र निर्माण करना है।’’ वहीं इसी बात को सर्वपल्ली डा. राधाकृष्णन कुछ इस प्रकार कहते हैं ‘‘ शिक्षा का मुख्य कार्य अच्छे तथा बुरे का अन्तर करना बताता है।’’
वर्तमान में सबसे बड़ी बिडम्बना यही है कि शिक्षार्थी में नैतिक मूल्य गिर रहे हैं। यदा -कदा शिक्षालय जहां राजनीति के अखाड़े बनने को तत्पर हैं, रिक्त वादनों में शिक्षण विधियों पर चर्चायें कम, राजनीति पर अधिक होती हैं।शिक्षक अन्य हितों की ओर भागते दिखते हैं।इन सभी में शिक्षक अधिक सम्मिलित हैं जिन्होंने शिक्षण को जीविका के निमित्त अन्तिम विकल्प के रूप में चुना है अथवा टयूशन प्रथा के द्वारा पूंजीपति बनना चाहते हैं।ऐसे लोगों का शिक्षण प्रभावी बनाने में ध्यान कम, वेतन -भत्तों, अन्यान्य सुविधाओं, गुटबन्दी, चापलूसी आदि पर ध्यान अधिक रहता है।कई बार अर्थलोभ विद्यार्थियों, र्र्अिभभावकों की दृष्टि में गिरा देता है।शिक्षक का समाज में सम्मान घटाने में अधिकाधिक योगदान इन्हीं का है।इसके अतिरिक्त कार्य - सन्तुष्टि में सबसे बड़ी बाधा है- शैक्षिक आदर्श विहीनता।विद्यालय हित से बड़े हो रहे निजी हित, प्रधानाचार्यों व प्रबन्धकों की कहीं -कहीं पर निरकुंशता, अनपेक्षित व्यवहार कार्यशैली है।जिसका परिणाम सामान्य शिक्षक अपने कत्र्तव्य निर्वहन में पग-पग पर कठिनाई के रूप में भुगत रहा है।उसकी तैयारी, दक्षता एवं वचनबद्धता प्रभावित हो रही है।श्रीमद्भगवत्गीता में श्रीकृष्ण के कथन ‘‘योगः कर्मसु कौशलम् ’’ ( अर्थात् अपने कार्य में प्रयास कर गुणवत्ता की तलाश करो ) का स्थान काम चलाऊपन ले रहा है।प्रतिवर्ष आवश्यक रूप से होने वाले 220 कार्य दिवस न होने से शिक्षक -शिक्षार्थी व अभिभावक कोई सन्तुष्ट नहीं हो पा रहे हैं।ऊपर से शिक्षक -शिक्षार्थी, अभिभावक व संस्था प्रधान में से किसी एक की निष्क्रियता सन्तुष्टि को कोसों दूर भगा रही है।इसके विपरीत जहां सभी घटक सक्रिय हैं, वहां पूर्ण कार्य - सन्तुष्टि मिल रही है।
सरकारों की बढ़ती दखल, स्वकेन्द्र परीक्षाप्रणाली व नकल माफियाओं की सक्रियता ने जहां छात्र -छात्राओं को अनुचित साधनों के प्रयोग की ओर ढकेला है।वहीं कुछ इसे अपना कत्र्तव्य मानने लगे हैं।वहीं अभिभावक येन -केन प्रकारेण अपने पाल्य को अगली कक्षा में देखना चाहते हैं।इन सबसे भ्रष्टाचार की सुरसा का मुख फैलता जा रहा है।सुविधा शुल्क की स्वीकार्यता बढ़ रही हैं।विद्यालयों में प्रयोग परीक्षाओं से लेकर ऊपर तक मकड़जाल फैल रहा है।ऐसे में यदि शिक्षक के मात्र कत्र्तव्य को देंखें तो वह आजकल की बनती हवा से कोसों दूर है।उसके कार्य तक रिश्वत के बिना सम्भव नहीं हैं।उससे खुले आम पैसों की मांग की जाती है। वह धर्म संकट में है
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