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कविता ने सदैव मेरे साथ न्याय किया है

 

शशांक मिश्र भारती

 

संसार में बालक के जन्म के साथ ही कविता जन्म ले लेती है। उसका किलकारना उसके हृदय के भावों का प्रारम्भिक रूप है। सृष्टि के प्रारम्भ में जब उसने चिड़ियों की चहचहाहट, भौंरों की गुंजाहट, जल की कलकल सुनी, हवा से पत्तों को हिलते देखा तो यह भी उस समय की कविता ही थी। मनुष्य में वाणी का विकास एक महान उपलब्धि रही। यही कालान्तर में कवित्व की सृष्टि का माध्यम बनी। वाणी द्वारा होने वाली अभिव्यक्ति को अर्थ सौंन्दर्य से परिपूर्ण किया जाने लगा। नृत्य पहले बना। उसके बाद गीत व कविता बनी। सार्थक वाणी पर पहुंचने पर काव्य की प्रथम परिभाषा दी, संस्कृत के महान आचार्य भामह ने-‘‘ शब्दार्थ सहितौ काव्यम्’’। इसके बाद सृजन होता रहा। समय बदला। पर कवि समय से सजग जीवन तत्व लेता रहा।, लेकिन उसका कभी दास नहीं बना। बल्कि समय परिस्थितियों का भोक्ता बन उससे रस ग्रहण कर सौन्दर्य और शक्ति से अपनी कविता को परिपूर्ण करता रहा।

 


तमसा नदी पर स्नान के लिए जाते समय कौत्र्च पक्षियों में एक को पीड़ा से तड़पते देखकर हृदय से निकलने वाला छन्द-‘‘मां निषाद प्रतिष्ठां शाश्वती समा,‘‘ से लौकिक काव्य का आरम्भ हो गया। तब से आज तक कविता जन्मती आगे बढ़ती रही। कभी हर्ष के रूप में कभी विषाद के रूप में। कहीं श्रृंगार का रूप धरकर तो कहीं भक्ति का आश्रय लेकर, कहीं नटखट श्री कृष्ण में वात्सल्य सरावोर। देशकाल परिस्थितियों ने कविता के विषय को बदला। आकार -स्वरूप को बदला। वाल्मीकि के श्लोक, तुलसी की रामचरित मानस बनी। कबीर की साखी, सबद ,बिहारी की सतसई बनी। भूषण का कवित्त, चन्दरबरदाई का पृथ्वीराजरासो व जगनिक का परमालरासो बन मुर्दों में भी जान डालने में समर्थ हुई। आवश्यकता ने भारत भारती, आंसू, साकेत, राम की शक्ति पूजा, जूही की कली, वह तोड़ती पत्थर, नीर भरी दुःख की बदली, और परशुराम की प्रतीक्षा-मोची राम बनाया। आज भी यह अपने आपको समय व परिस्थितियों के अनुरूप ढालकर अपने विविध स्वरूपों में आगे बढ़ रही है।

 


कविताएं मुझे बचपन से ही प्रिय थी विशेषकर प्रकृति विषयक। महादेवी वर्मा व सुमित्रानन्दन पन्त की कविताओं को बार-बार पढ़ा था। कुछ पक्तियां हृदय पटल पर अंकित थीं-



छोड़ द्रुमों की मृदु छाया ,तोड़ प्रकृति से माया
बाले तेरे बाल जाल में, कैसे उलझा दूं मैं लोचन
छोड़ अभी से इस जग को।

 



देश भक्ति की कविताएं पढ़कर आनन्द आता, प्रसाद की ध्रुवस्वामिनी और गुप्त की भारत-भारती ने गहरा प्रभाव डाला था। यही सोचा करता था कि कैसे यह भावना सार्थक होती रहे। कुछ लिखने का मन होता, तो सोचता, शायद लिखने के लिए अनुमित लेनी होती होगी। इसलिए प्रयास न करता। यह विचार गांव के पंचायत राज विद्यालय की दसवीं में पढ़ते समय आया था। हालांकि कक्षा छः में चलती हमारे पूर्वज की कहानियों-देश के सच्चे सपूत सा लिखने का पहले ही असफल प्रयास कर चुका था। घर के पुस्तकालय में उपलब्ध विविध भाषाओं के मूल और अनुवादित साहित्य को पढ़ने का क्रम प्रारम्भ हो चुका था। परन्तु विद्यालय से घर-परिवार तक किसी से पूछने का साहस न हुआ। हृदय के किसी कोने में यह छटपटाहट पड़ी रही।दो वर्ष बाद जब मैंने तहसील मुख्यालय में सिथत पुवायां इण्टर कालेज पुवायां में इण्टरमीडियट की परीक्षा दी। उसी समय हमारे यहां बिहार से अपनी मेडिकल की पढ़ाई पूरी कर साहित्य सेवी व कथाकार सुधीर पाण्डेय का आना हुआ। उन्होंने पूछा- क्या कुछ लिखते-विकते हो। मैने कहा- कैसे लिखंू, शायद सरकार से अनुमति लेनी होती होगी या वही लिखवाती होगी। उन्होंन हंसते हुए कहा-ऐसा नहीं है। कोई भी लिख सकता है। तुम भी प्रयास करो। उसके बाद मैंने लिखना प्रारम्भ किया; अपितु हमलोगों(सर्वश्री सुधीर पाण्डेय, अभिनव मिश्र बंगाली, अरविन्द पथिक व शशांक मिश्र भारती)ने मिलकर अभिज्ञान नाम से एक साहित्यिक संस्था बनायी। उसके बैनर तले लिखना प्रारम्भ किया। समय मिलने पर बैठकर चर्चायें करते। पारस्परिक त्रुटियां इंगित करते। छोटी-छोटी, विविध पर्वों पर काव्यगोष्ठियां करते।इस समय से ही बच्चों और बड़ों दोनों के लिए ही साहित्य की लगभग एक दर्जन विधाओं में लिखना प्रारम्भ कर दिया था बाल साहित्य के लिए नागेश पाण्डेय संजय से मार्गदर्शन- प्रोत्साहन मिला। उनके ही प्रयासो से मेरा प्रथम बालगीत तितली बालदर्शन मासिक कानपुर के नवम्बर 1991 अंक में प्रकाशित हुआ।
चूंकि मेरी प्रारम्भ से ही रुचि प्रकृति मे थी इसलिए अधिकांश रचनाओं के अतिरिक्त प्रथम रचना भी बदलाव शीर्षक से यूं बनी-
हर पल बदलता है
एक
नया रंग लाता है
देशों-विदेशों में
मौसम के बदलाव से...।
जिसके अक्टूबर 1991 में मुम्बई की मासिक पत्रिका समाजप्रवाह में प्रकाशन से मेरा उत्साह बढ़ गया।घर पर उपलब्ध हिन्दी, संस्कृत, अंग्रेजी, बंगला व असमिया के पर्याप्त मूल और कन्नड़, तेलगू, मलयालम, तमिल, रूसी, उर्दू के अनुवादित साहित्य ने मुझे उŸार-दक्षिण के साहित्य से जोड़ने का काम किया।मध्यकाल से आधुनिक काल तक का अधिकांश साहित्य मेरे पुस्तकालय में था।परिणामतः मेरे अन्दर की कविता समाज, देश परिस्थितियों से प्रभावित होकर विविध रूपों, विषयों में सामने आयी। प्रकृति के साथ-साथ पर्व ,त्यौहारों, महंगाई, राजनीति,




भ्रष्टाचार, आतंकवाद, देशप्रेम, कश्मीर की समस्या, गांव, संस्कृति, राष्ट्रभाषा, दहेजप्रथा, नारी, जनसंख्यावृद्धि, अशिक्षा, साक्षरता आदि विषयों पर कविताएं लिखने लगा।बच्चों से अधिक जुड़ाव होने से चिड़िया, हमबच्चे, दादा जी, तिरंगा, हाथीदादा, भारत के हम बच्चे हैं ,मच्छर जी, आदि विषयों पर लिखने के अलावा बालकथायें, बालोपयोगी निबनध, लेख, लिखे बच्चें के भोलेपन के साथ-साथ उनके देशभक्त कर्तव्य प्रेमी होने को दर्शाती मेरी हमबच्चे कविता देखिये-
कण-कण में भर देंगे खुशियां
मेहनत करके हम
मिलजुलकर सब काम करेंगे
फिर काहे का गम,
अपनी मेहनत रंग लाएगी
महकेगा परिवेश,
हर्ष-स्वरों की गूंज उठेगी
चहकेगा ये देश
छोटे-छोटे हम हैं पर
मन के हैं निर्मल भोले,
घुलमिल जाते हैं उनमें
जे हंसकर हमसे बोले।।
कई बार समाज-देश में व्याप्त रिश्वत-कमीशन खोरी ने इतना व्यथित किया, कि सीधे-सीधे शब्दों में लिखना पड़ा-
बना भ्रष्टाचार राजधर्म है
सब कोई इसको शीश नवाओ,
मानुष तन करना सफल हो
इसको सीखों और मौज मनाओ।
नन्हें-नन्हें कोमल हाथों को फैलाते सुबह-सुबह से ही नंगे, अधनंगे कृशकाय बच्चों को देखकर आंखें भर आयी।हृदय का ज्वार भिखमंगे कविता के रूप में फूटा-
वह प्रतिदिन गुजरते हैं सुबह-शाम
प्रतिदिन दुकानों-घरों के समीप से
हाथ फैलाते हैं पसारते हैं
और आंचल तक फैलाते हैं
अपनी पीड़ायें सुनाते
दुआओं को बांटते सिर्फ-
थोड़े से पैसों या मुट्ठी भर अनाज के लिए।
कारगिल संघर्ष के बाद लिखे बिना न रह सका-
यदि कोई बलिदानी आया
हम खून कहां से लायेंगे

 

बहुत बहाया करगिल में
अब और बहा नहीं पायेंगे।
इसका उद्देश्य भविष्य में परिस्थितियां ऐसी न होने से था। कुछ वर्षों बाद अमेरिका पर आतंकी हमला हुआ तब मैंने भारत का पक्ष रखते हुए लिखा-
विश्व कहे आतंकवाद अब
हम दशकों से सहते आये
वह झेल सके न एक हमला
हम अनेक झेलते आये।
व्यक्ति व स्थान का महत्व अपने अपने स्थान पर होता है चाहें वह छोटा हो या बड़ा, अमीर या गरीब, सुई-तलवार की भांति। दर्शाते हुए मैंने कविता लिखी- अपने-अपने स्थान पर-
नदी निरन्तर चलती है
नदी आगे बढ़ने का सन्देश है
तो किनारे एक-दूसरे से
कभी न मिलने का संकेत,
फिर भी-
महत्व दोनों का है
अपने-अपने स्थान पर।
जून 1991 से प्रारम्भ मेरी कविता की यात्रा अनेक कटु-मृदु अनुभवों के साथ अनवरत जारी है।दो सौ अधिक पत्र-पत्रिकाओं में रचनाओं के अलावा मेरी अब तक हमबच्चे, पर्यावरण की कविताएं, बिना विचारे का फल, क्यों बोलते हैं बच्चे झूठ, मुखिया का चुनाव, आओ मिलकर गाएं, दैनिक प्रार्थना सात पुस्तके छप चुकी हैं। प्रतापशोभा के अतिथि संपादन के अतिरिक्त , प्रेरणा-1, रामेश्वर रश्मिपत्रिका तीन अंक, अमृत कलश, और देवसुधा पांच अंक का अब तक संपादन किया है।अन्तरजाल पत्रिकाओं रचनाकार, स्वर्गविभा, साहित्य शिल्पी, सृजनगाथा, कविताकोश, हिन्दी हाइकु पर 400 से अधिक रचनायें छप चुकी हैं।अनेक पुरस्कारों-सम्मानों से कविता ने मेरा गौरव-स्वाभिमान बढ़ाया है। अनेक राष्ट्रीय-अन्र्तराष्ट्रीय स्तर की संगोष्ठियों तक पहुंचाया है।अनेक कवि प्रेमियों, प्रतिष्ठित कवियों से आशीर्वाद-मार्गदर्शन दिलाया है।
आज मैं जो कुछ हूं मेरी पहचान है अस्तित्व है उसका एक बड़ा श्रेय कविता को ही है। कविता ने सदैव मेरे साथ न्याय किया है। मैंने कभी कुछ अपेक्षा नहीं की।फिर भी बहुत कुछ दिया है। विश्वास है कि चिरकाल तक देती रहेगी।

 

 

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