शशांक मिश्र भारती
नगर शब्द से बनी नागरी लिपि आज विश्व की किसी भी लिपि की वैज्ञानिक क्षमता से कम नहीं है चाहें उच्चारण-बनावट या लिखावट कोई भी दृष्टिकोण हो। दुनियां की बहुत सी लिपियां संकेत लिपि हैं।संकेत चिन्हों की अधिकता उनमें है। जबकि देवनागरी में ऐसा कुछ नहीं है।यह लिपि के लिए आवश्यक अपेक्षाओं से युक्त है।इसमें प्रत्येक वर्ण को सुगमता से लिखा जा सकता है।पहले इस देश के व विदेशों के कुछ वैज्ञानिकों ने कहा था कि देवनागरी लिपि पूर्णतः वैज्ञानिक नहीं है विश्व स्तर पर असफल हो जायेगी। देश में ही सफल नहीं है।पूर्णतया तर्कहीन असत्य सिद्ध हुआ है।हिन्दी व उसकी लिपि के वर्तमान में नियमित तकनीकी-प्रशासनिक क्षेत्रों में प्रयोग से देखा जा सकता है।नागरी लिपि की उपयोगिता को देश-विदेश के वैज्ञानिकों ने स्वीकारा है।कुछ तो विश्व स्तर पर इसके अपनाये जाने की वकालत कर रहे हैं। सातवां विश्व हिन्दी सम्मेलन सूरीनाम में इन सभी सम्भावनाओं का संकल्प के साथ ही समाप्त हुआ था।वैसे भी दुनिया के महत्वपूर्ण शहरों, विश्वविद्यालयों में देवनागरी का प्रयोग हो रहा है।भारतवर्ष के किसी भी भाग में हिन्दी व उसकी लिपि देवनागरी का विरोध नहीं है।सभी क्षेत्रवासी इसका प्रयोग गर्व से करते हैं।विरोध करने वाले राजनैतिक व भाषायी ठेकेदार हैं।वर्तमान सरकार भी भाषा और लिपि के सम्बन्ध में उतनी ही उदासीन है जितनी पूर्ववर्ती सरकारें थीं।ये सब अभी भी खाने के दांत अलग और दिखाने के अलग की भांति हाथी हो रहे हैं ।
भारत भ्रमण करने वाले अनेक विज्ञजनों ने स्वीकारा है कि सम्पूर्ण देश में यदि किसी भाषा व लिपि से काम चल सकता है तो वह हिन्दी भाषा व उसकी देवनागरी लिपि है। यह लिपि देश को उŸार-दक्षिण पूरब-पश्चिम से जोड़ने का कार्य भी कर सकती है। देश का भाषायी जाल भी देवनागरी के अत्यंत समीप है। अधिकांश भाषा लिपियों में अधिक दूरी नहीं है कुछ तो लिखने में बिल्कुल देवनागरी जैसी हैं। अनेक भाषायें जब अनेक लिपियों में लिखी जायेंगी तो देश में समस्यायें बढ़ेंगी।भेदभाव भाषायी कटुता पैर पसारेगी।इसलिए आवश्यक है कि पूरे देष की एक ही भाषा-लिपि हो। देश की अन्य भाषायें भी नागरी लिपि में लिखी जाने लगें तो और भी अच्छा होगा।वह हिन्दी के करीब आयेंगीं पंजाबी -उर्दू का तो हिन्दी से अन्तर निकालना भी कठिन होगा।चंूकि उŸार भारत की भाषाएं आर्य परिवार की हैं और दक्षिण भारत की द्रबिड़ परिवार की।उŸार की जहां हिन्दी के समीप हैं वहीं दक्षिण की संस्कृत के समीप हैं।इसलिये नागरी लिपि व राष्ट्रभाषा हिन्दी को अपना दायित्व निर्वहन में कोई परेशानी नहीं आयेगी।बस देश के नेतृत्वकर्Ÿााओं भाषा-विदों अधिकारियों कर्मचारियों जनसमुदाय द्वारा हिन्दी भाषा व नागरी लिपि को समुचित प्रतिनिधित्व देकर उसको उसका अधिकार प्रदान करने की आवश्यकता है।अनुदान की तख्ती बहुत लग गई इस दिवस प्रतियांगितायें मात्र दिखावटी बहुत करवा ली ।हमको दिवस पखबाड़ें विशेष तक न सिमटकर हर दिन हर समय हिन्दी और नागरी लिपि के मान पूर्ण समर्पण से अपने कार्य करना चाहिए।यह कार्य कोई सरकारी इनका या उनका नही ंहम सबका हमारे अस्तित्व व स्वाभिमान का है ऐसा मानकर राजा भगीरथ की भांति लग जाना चाहिए।
यदि भारत हिन्दी व नागरी लिपि को उचित महत्व देकर पूरे देश में व्यावहारिक तौर पर लागू करता है तो देश में भाषायी-विवाद तो सुलझेंगे ही देष रूपी शरीर की आत्मा एकाकार हो अपनी सम्पर्क भाषा लिपि के लिए किसी विदेषी भाषा संस्कृति लिपि की आवश्यकता न पड़ेगी।बल्कि स्वंय की आंखें सबकुछ देख सकेगी।जापान जर्मनी रूस तुर्की स्पेन चीन की भांति हमारा अपना भाषायी स्वाभिमान होगा ।
राष्ट्रभाषा
एक देश की राजधानी में चार व्यक्ति अलग-अलग प्रांतों से आकर मिले।
चारों ने अपनी बात अपनी-अपनी भाषा में कहने की ठानी। एक-दूसरे की भाषा कोई न जानता था। फलतः एक-दूसरे की बात कोई न समझ पाया।
कोई ऐसा भी न था, जो समझाता-
अरे मूर्खों क्यों अपनी ढपली अपना राग सुना रहे हो। एक सर्वमान्य भाषा को राष्ट्रभाषा क्यों नहीं बनाते। उसका प्रयोग ऐसी समस्या का अन्त करता।
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