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प्रशिक्षण की स्थिति और औचित्य

 

 

शशांक मिश्र भारती

 

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प्रत्येक बार की भांति इस बार भी प्रशिक्षण प्रारम्भ हुआ।इस बार कुछ अन्तर था। प्रारम्भिक चरण में सामान्य औपचारिकता के निर्वहन के अनुशासन पर ध्यान दिया जा रहा था प्रशिक्षार्थी भी पहले से अधिक जिज्ञासु व प्रशिक्षण की सफलता के लिए उत्सुक थे। एक, समूह व सम्पूर्ण में समय -समय पर विभाजन के साथ सीखने -सिखाने की प्रक्रिया चलने से अनेक कटु -मृदु अनुभव होने लगे। मृदु इसलिए कि कुछ लोग कत्र्तव्य व कार्य के प्रति पूर्ण समर्पित थे तो कटु अनुभव वह जो अनचाहे ही अरुचि का प्रदर्शन करते दिखते थे। धीरे -धीरे मात्र औपचारिकता निर्वहन करने व आने वालों की संख्या बढ़ने लगी। कुछ केवल उपस्थिति के लिए आने लगे। कुछ एक -दो दिन अनुपस्थिति रहने में भी संकोच न कर रहे थे। आश्चर्य तो उस समय होता था जबकि अपने कार्य, कर्मठता, सत्यनिष्ठा, व्यवसाय के प्रति पूर्ण समर्पण की बात करते थे वह अवसर का लाभ उठाने से न चूकते थे। मात्र पुरुष अध्यापक ही ऐसा करते तो ठीक था अपितु इने -गिने महिला प्रतिनिधियों द्वारा भी कार्य के प्रति शिथिलता दिखलायी जा रही थी। उपस्थिति के समय को लेकर भी भ्रम की स्थिति थी। कुछ बन्धु नियमित देर से आते थे। तो कुछ समयपूर्व प्रशिक्षण स्थलों से अदृश्य हो जाते थे। तो कुछ इस अवसर का लाभ अपने व्यक्तिगत कार्यों की पूर्ति में कर रहे थे। कई अनचाही उपस्थिति वालों के द्वारा स्वंय की अरुचि के साथ -साथ प्रशिक्षक को भी अनावश्यक उलझाने का प्रयास होता था।जब जानबूझकर उलझाऊ व अतार्किक प्रश्न किये जाते थे अथवा प्रशिक्षण स्थल को छोड़कर किसी न किसी बहाने बाहर चले जाते थे।पचपन -छप्पन के समूह में सात - आठ ही पूर्णतः रुचि ले रहे थे। अन्यथा को तो प्रशिक्षण या उसके लाभ -हानि से कोई अर्थ तक नहीं था। जिससे कई बार शिक्षक भी कार्य के प्रति शिथिल हो जा रहे थे।शायद इसलिए कि अलग भाषा, विषयवार कोई न था। यही सबसे बड़ा प्रशिक्षण का दुर्भाग्य भी था और दुष्प्रभाव भी डाल रहा था।

 

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