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पुरस्कार पर नहीं श्रेष्ठ कृतित्व पर ध्यान देना चाहिए

 

 

शशांक मिश्र भारती

 


कभी पुरस्कार-सम्मान मिलना बड़े गौरव की बात समझी जाती थी। कवियों की प्रतिष्ठा बढ़ाने के साथ-साथ उनमें नयी प्राण शक्ति भरने का दायित्व ये पुरस्कार निभाते थे। पुरस्कारों का महत्व देने के ढंग व पाने वाले के सार्थक मूल्यांकन से होता था। भारतीय साहित्य जगत में अनेक प्रकार के पुरस्कार-समन प्रचलित थे। संस्कृत साहित्य में तो एक-एक श्लोक पर एक-एक लाख स्वर्ण मुद्रायें प्रदान किये जाने का उल्लेख मिलता है।बहुत से कवि स्वान्तः सुखाय रघुनाथ गाथा की भांति अपने सृजन में तल्लीन रहते थे। उन्हें समाज व राष्ट्र की दशा व दिशा की चिन्ता रहती थी। परिणामतः उनका काव्य कालजयी रूप धारण कर लेता था। मध्यकाल के कबीर तुलसी सूर हों या पुर्नजागरण काल के भारतेन्दु हरिशचन्द्र छायावाद के निराला या प्रसाद। यह अपने सृजन की पराकाष्ठा से जनमानस के कण्ठाहार बने।कभी कविता ने रसखान बन सावधान किया तो कभी चन्द्रबरदाई भूषण बन राष्ट्रभक्ति- शक्ति को नूतन ऊर्जा दी।
वर्तमान स्थिति को देखे तो केन्द्र व राज्य सरकारों के सम्मान-पुरस्कार तो राजनीति के शिकार हो ही चुके हैं। देश भर में पुरस्कार-सम्मान खरीदन े-बेचने की जबरदस्त दुकानदारी चल पड़ी है। कोई प्रविष्ट शुल्क के नाम पर मांग रहा है तो कोई वार्षिक-आजीवन सदयस्ता के नाम पर अर्थसहयोग अनुदान की मांग करता है।यह संस्थायें-अकादमियां देश भर में पुरस्कार-सम्मान पिपासु ऐसे कवियों के आशीर्वाद, अर्थसहयोग से फल फूल रही हैं जो अपने धन बल छल से रातों-रात प्रसिद्ध कवि बन पुरस्कार-सम्मान का सैंकड़ा पार करना चाहते हैं।यही नहीं यह इच्छुक कवि मित्र ऐसे समाचार भी पत्र-पत्रिकाओं में मोटे शीर्षकों से छप्वाने का भरसक प्रयास करते हैं। इसी तरह के समाचार पत्र- पत्रिकाओं में आये दिन देखे व पढ़े जाते हैं।ऐसे लोग जल्दी ही दर्जनों पुस्तकों अपने नाम के परिशिष्टों को भी पैसे के बल पर छपवा लेते हैं।
वर्तमान में पुरस्कारों की स्थिति के लिए दोषी संस्थाये-संगठन व अकादमियां ही नहीं, अपितु वह सभी कवि साहित्यकार मित्र भी हैं जो इनको अपना झूठा बायोडाटा बढ़ाने के लिए इनकी दूकानदारी चलवानें में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से सहयोग प्रदान करते हैं। अपने आपको मानद पी.एच.डी.,डी.लिट. उपाधि धारक कहलाना गर्व का अनुभव करते हैं।उनको चाहिए कि वह ऐन केन प्रकारेण प्रसिद्धि पाने के लालच से बाहर आकर अपने कृŸित्व के निखार पर ध्यान दें।पुरस्कार स्वंय झोली में होंगे। सबसे बड़ा पुरस्कार तो यह होगा; कि श्रेष्ठ कविता सृजन समाज व देश का कण्ठाहार बन कवि व उसकी कविता को कालजयी बना देगा।
मैने जून 1991 से लेखन कार्य प्रारम्भ किया था।सितम्बर 93 से ही इस तरह के प्रस्ताव आने लगे थे।उस समय जो पच्चीस-तीस रूपये मांगते थे। आज दो-से आठ सौ रूपये तक मांगते हैं।कई बार मेरा चयन कर लिए जाने का आमंत्रण-शुभकामना पत्र आ जाता है लेकिन बाद में सहयोग शुल्क न देने पर अयोग्य हो जाता हंू।अभी कुछ महीने पहले की बात है बर्धा महाराष्ट्र की एक संस्था ने प्रविष्ट मंगवायी। साहित्य गौरव पुरस्कार के लिए चयन किये जाने की सूचना दी।लेकिन प्रतिनिधि शुल्क रूपये 500/- न देने पर अयोग्य हो गया।ऐसा बर्धा ही नहीं पानीपत, ऋषिकेष, मथुरा, कवर्धा, कटनी, खण्डवा, कुशीनगर, इलाहाबाद की न जाने कितनी संस्थायें-अकादमियां कर चुकी हैं।इसके अलावा कुछ मित्र विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के पुरस्कार- सम्मान प्रतियोगिताओं के आयोजक बन जाते हैं, लेकिन विजेताओं को कभी पुरस्कार व इनाम की राशि नहीं भ्ेाजते। हैं।अपना विरुदावलि यशगान समय-समय पर धन बल छल व पहंुच से अवश्य छपवाते रहते हैं।कुछ तो अपने को ख्यातिलब्ध राष्ट्रीय-अन्र्तराष्ट्रीय बनाने के लिए अर्थसहयोग से अपने ऊपर विविध पत्र-पत्रिकाओं के विशेषांक छपवाते रहते हैं।
कुछ कवि मित्र अपने पुरस्कार धन बल के प्रभाव से रातोंरात पुरस्कार- सम्मानों उपाधियों के शतकवीर बन गये हों।परन्तु देश में कर्Ÿाव्य के प्रति ईमानदार संस्थाओं अकादिमयों की संख्या थोड़ी ही सही शेष है कुछ सरकारी पुरस्कार सम्मान ईमानदारी से दिये जाते दिख जाते हैं। देश की ऐसी निःस्वार्थ सेवी संस्थायें भविष्य के लिए एक संबल हैं प्रेरणा का सा्रेत हैं साथ ही भाषा व साहित्य की सच्ची उपासक कहने की अधिकारिणी हैं।
मैं वर्तमान में पुरस्कारों की स्थिति पर यही कहना चाहूंगा कि सच्चे कवि मित्रों को इन छद्म संस्थाओं- अकादमियों का असहयोग कर अपने कृŸिात्व के परिष्कार पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए।यही आने वाले समय में सच -पुरस्कार होगा।देर से ही सही श्रेष्ठ कवि को सम्मान प्रसिद्धि अवश्य मिलती है।उसका माध्यम समाज राष्ट्र या जनसामान्य कोई भी बने।

 

 

 

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