शशांक मिश्र भारती
मनुष्य की वाणी, शरीर और मन का जिससे संस्कार किया जाता है। जिसके द्वारा ही वह जन्म से पषु सा होते हुए भी अपने आपको नियमित करता है। अपने अन्दर मानवीय सामाजिक गुणों को धारण करता है। वह शिक्षा कहलाती है।शिक्षा का अर्थ यह भी नहीं है कि बाहर से लाकर कुछ भी दिमाग में भर दिया जाये, बल्कि व्यक्ति विषेश की आन्तरिक क्षमताओं में से उच्चतम और उत्कृष्ट को प्रस्फुटित होने का अवसर प्रदान करना शिक्षा है।एक सुतुलित व्यक्तित्व के निर्माण हेतु ,बुद्धियुक्त और तर्कसंगत विधि से आदर्ष क्षमताओं और गुणों का विकास करना ही शिक्षा है। जौन लाक के अनुसार-‘‘ पौधों का विकास कृषि द्वारा होता है और मनुष्यों का शिक्षा द्वारा। ’’शिक्षा का अंग्रेजी पर्याय एजूकेशन (म्कनबंनमक म्कनमपमत) से बना है जिनका शब्दिक अर्थ शिक्षा देना, ऊपर उठाना या पालन करना होता है। वहीं भारतीय शिक्षाविद एवं षास्त्रों के अनुसार -‘‘शिक्षा शब्द संस्कृत भाषा के शिक्ष् धातु से बना है। जिसका अर्थ ज्ञान ग्रहण करना है।’’ गांधी जी के शब्दों में-‘‘बालक एवं मनुष्य के शरीर मस्तिष्क एवं आत्मा के सर्वोत्तम अंश का सम्पूर्ण प्रकटीकरण ही शिक्षा है।’’
मनुष्य के जीवन में शिक्षा का बड़ा महत्व है। शिक्षा के बिना मनुष्य मनुष्य नहीं बन सकता। मनुष्य को पषुओं से श्रेष्ठ बनाने वाली शिक्षा ही है।अशिक्षित लोग असभ्य हो सकतेे हैं।शिक्षा से मनुष्य का जीवन अनुषासनमय होता है।जीवन को सुखमय बनाने के लिए शिक्षा की बड़ी आवष्यकता है। विद्याविहीनः पषु , विद्या ददाति विनयं, विद्या विदेशगमनेषु धनम्, विद्यासर्व प्रधानम् धनम् आदि सुन्दर उक्तियां हमारे संस्कृति साहित्य में भरी पड़ी हैं।जिनका हमारी शिक्षा में महत्व है।शिक्षा ही विद्या है।जो कल्पवृक्ष के समान मनुष्य के सभी कार्य सिद्ध करती हैं। शिक्षित मनुष्य निर्धन होकर भी निर्धन नहीं होता।वह सब स्थानों पर सम्मान प्राप्त कर लेता है।फिर शिक्षा ही किसी भी देश का उद्धार करती है। इस सम्बन्ध में प.नेहरू ने कहा था-‘‘पुरानी दुनिया बदल गयी है और पुरानी बाधाएं समाप्त होती जा रही हैं जीवन अधिक अन्तराष्ट्रीय होता जा रहा है हमें इस भावी अन्र्तराष्ट्रीयता में अपना योगदान देना है। इस कार्य के लिए दुनिया से सम्पर्क बहुत आवष्यक है।’’ अर्थात हमारी शिक्षा हमकों संसार से जोड़े। विश्व सभ्यता में भारत अपना अपेक्षित श्रेष्ठतम योगदान दे सके, इसके लिए यह बहुत आवष्यक है कि विद्यार्थियों की समस्याओं को समझ उनका सहृदय प्रबन्धन सुनिष्चित किया जाये।डा. जाकिर हुसैन ने चारित्रिक उत्थान को भी महत्व देते हुए उसको शिक्षा से जोड़ते हुए कहा था- हमारे शिक्षा -कार्य का पुर्नसंगठन और व्यक्तियों को नैतिक पुनरूत्थान एक-दूसरे से अविछिन्न रूप से गंुथे हैं।’’
शिक्षा का कोई निष्चित समय न होकर जन्म से मृत्यु तक चलती रहती है।जिसके अन्र्तगत मनुष्य सर्वप्रथम अपनी माता जो कि उसकी प्रथम शिक्षिका है, से सीखता है।फिर पिता, परिवार व समाज के अन्य सदस्यों, अध्यापकों से सीखता है।इस तरह उसके सीखने में भी उसका अधिकांश समय व जीवन चला जाता है।प्राचीन काल में गुरूकुल जहां शिक्षा के माध्यम थे।शिष्य गुरूजनों के चरणों में बैठकर सीखते थे।उनके आदर्षों का अनुसरण अपने आचरण में करते थे।गुरूकुलों के क्रियाकलापों में अपना हाथ बंटाते थे।आज अनेक शिक्षण संस्थाओं ने उनका स्थान ले लिया है।जिसकी अनेक पद्धतियां भी चल रही है।प्राथमिक, माध्यमिक, उच्च व तकनीकी आदि विविध श्रेणियों में विभक्त शिक्षा आज के बालकों का ज्ञानार्जन -परिमार्जन कर रही है।उनको अपने दायित्वों का बोध करवा रही है। वहीं प. श्रीराम शर्मा आचार्य के अनुसार-‘‘जो व्यक्ति की उदरपूर्ति की आवष्यकता को पूरा करती है वह शिक्षा है एवं वह विद्या है जो व्यक्ति में सुसंस्कारिता का समावेश करती है।’’ लेकिन आजकल की शिक्षा पर विद्यामेघमासिक मई-जून2012 पृ.18 पर सुनीता शर्मा की ये पंक्तियां सटीक बैठती हैं कि-‘‘आज की दिषा हीन शिक्षापद्धति जिसमें शिक्षा तो है अक्षरज्ञान तो है तकनीकी ज्ञान तो है किताबी ज्ञान तो है लेकिन जीवन विद्या नहीं, आचरण नहीं, विवेक नहीं, बोध नहीं। इसी सामंजस्य के अभाव के कारण वर्तमान शिक्षा अधूरी है।’’
वर्तमान की भारतीय शिक्षा तीन स्वरूपों में विभक्त दिखायी देती है।औपचारिक, अनौपचारिक और निरोपचारिक शिक्षा।शिक्षा का जो महत्व व उपयोगिता प्राचीन भारत में थी, आज दृष्टिगोचर नहीं होती है।पहले जहां शिक्षा भारत में मुक्ति का साधन समझी जाती थी।आज मात्र अधिकाधिक ज्ञानार्जन, रोजगार प्राप्त कराने वाली बन गई है।सबसे बड़ा दुख यही है कि शिक्षा नौकरी हित बनी।आज का बालक शिक्षा के उसी स्वरूप व माध्यम को अधिक पसन्द करता है जिसमें षीघ्रातिषीघ्र सरकारी नौकरी मिल सके। उसकी अधिकाधिक धन वैभव प्राप्त हो सके।
अभिभावक भी बालकों को आस -पास की स्थिति के अनुसार पाष्चात्य तड़क -भड़क वाले विद्यालयों की शिक्षा दिलाना अधिक पसन्द करता है या कर रहा है।जोकि बहुत ही चिन्ता जनक स्थिति है।जिसके कारण हमारी भावी पीढ़ी स्वभाषा, सभ्यता व संस्कृति -परम्पराओं, आदर्षों से दूर होती जा रही है।संयुक्त परिवार व पारिवारिक समरसता टूट रही है।स्वामीविवेकानन्द के शब्दों में-‘‘यदि आपने उत्तम विचारों का संग्रह करके उन्हें अपने जीवन और चरित्र का आधार बना लिया है तो आप उस व्यक्ति से अधिक शिक्षित हैं जिसने सम्पूर्ण पुस्तकालय को ही हृदयंगम कर लिया है।’’
आजादी के बाद हमारा देश पाष्चात्य भाषा -संस्कृति व शिक्षा से जिस तरह प्रभावित हुआ है। वह हमारी शिक्षा के मूल्यों -उद्देष्यों से भी भटकाने का कारण रहा है।हमारी सांस्कृतिक विरासत जोकि पूर्णतया शिक्षा पर ही निर्भर करती है।आज डगमगाने लगी है।वर्तमान शिक्षा व्यवस्था के द्वारा विद्यालय में पाठ्यक्रम निर्धारित है।उसी का अध्यापन विद्यालय में होता है।इससे प्राचीन शिक्षा का उद्देष्य थोड़ा भी नहीं दिखलाई देता।जिसमें सुधार व देश के उत्थान के लिए प्राचीन व नवीन शिक्षा-पद्धति में समन्वय कर शिक्षा योजना की जानी चाहिए।तभी देश सफल होगा और पुनः राष्ट्रपुरुश इस देश में उत्पन्न होंगे जो राष्ट्र की उन्नति करेंगे।जो न केवल योग्य चिकित्सक, इंजीनियर, वैज्ञानिक, उद्योगपति, अधिवक्ता आदि होंगे; अपितु सुयोग्य ईमानदार व सद् आचरण व स्वभाव -संस्कारवान नागरिक भी होंगे।
साथ ही शिक्षा से जुड़े प्रत्येक घटक चाहें वह शिक्षक, शिक्षार्थी, अभिभावक, राजनेता, अधिकारी, कर्मचारी, संस्था प्रधान कोई भी हो अपने दायित्वों का निर्वहन पूर्ण सत्यनिष्ठा व विष्वास के साथ करना पड़ेगा।अन्यथा विष्व जहां इक्कीसवीं सदी की सफलता -मान्यताओं के साथ खड़ा होगा। हम सब कहीं न दिखाई पड़ेंगे।वर्तमान की तरह यदि अनिष्चिततायें बढ़ती गईं।सभी अपने-अपने दायित्वों से हटते गये।प्रत्येक स्तर पर भ्रष्टता -आलस्यता व्याप्त होती गई तो कहां हैं पहचान न पायेंगे।
वर्तमान समय संक्रमण का है एक तरफ हमें अपने अतीत ,अनुभवों परम्पराओं, संस्कृति, भाषा-आदर्षों व मान्यताओं को जीवित ही रखकर उनको विकास के नूतन आयामों तक ले जाना है। वहीं विष्व के अनूरूप भी बनाना है। जिसमें आने वाले समय में दुनिया हमारी अगली पीढ़ी को पिछड़ा हुआ, असभ्य, पिछलग्गू आदि उपहास्यास्पद उपाधियां न दे ।इन सबके लिए आवष्यक है कि शिक्षा से जुड़े सभी अपने दायित्वों को समझें। अभिभावक अपने बच्चों को अपनी ही नहीं देश व विष्व की सम्पत्ति, भविष्य, गौरव समझकर उन पर पर्याप्त ध्यान केन्द्रित करें।शिक्षक अपने विषय में पूर्णता छात्रोचित नवीनता लायें।समग्र छात्रों में सक्रियता -जागरूकता बनायें रखें तथा संस्था प्रधान अपने षैक्षिक ,सामाजिक व प्रषासनिक लक्ष्यों के लिए अपने आपको सफलता का आदर्श बना दें।विभाग ऊपर से नीचे तक चुस्त दुरस्त हो कार्य ईमानदारी व सक्रियता से करने वाला बनें।तो कोई बाधा नहीं आयेगी।हमारे देश के बालकों के आगे बढ़ने से उनके विष्व के साथ कदम से कदम मिलाकर चलने से देश का चहुंमुखी विकास होगा।
निष्कर्शतः मैं कहना चाहूंगा कि शिक्षा ही किसी भी राष्ट्र के नागरिकों के विकास की धुरी होती है।जिस पर विकास की समस्त प्रक्रियाओं का चक्र घूमता है इसलिए राष्ट्र को गतिमान, समृद्धि युक्त बनाने के लिए इस धुरी पर निरन्तर व पर्याप्त ध्यान देना होगा और उस पर चलने वाले चक्र को सुगतिमान रखना पड़ेगा तभी हम, हमारे पूर्वजों व बालकों के स्वप्न साकार हो सकेंगे।
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