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शिक्षा की सार्थकता

 

शशांक मिश्र भारती

 

 


भारतीय शिक्षा पद्धति का इतिहास बहुत पुराना है सालों से यहां अनेक शिक्षा पद्धतियों का प्रचलन रहा है।समय के साथ परिवर्तन -परिवर्धन होते रहे हैं।प्राचीनभारत से मध्यकाल के भारत में जहां गुरुकुल प्रणाली प्रचलित थी।शिष्य गुरुकुलों में ऋषि -मुनियों के समीप रहकर एकान्त में विद्या अध्ययन करता था।प्रत्येक वर्ग, समुदाय को शिक्षा के समान अवसर थे।विद्या की सभी धाराओं को पढ़ाया जाता था।तक्षषिला, विक्रमषिला, नालन्दा जैसी विष्वख्यिात संस्थायें काफी समय तक अपनी प्रसिद्ध को बनाये रखी हैं।शिक्षा व्यवस्था ठीक रहने पर देश का ढांचा, राजनैतिक स्थिति भी अच्छी रही।धीरे -धीरे विदेषी संस्कृति लोगों के आगमन आक्रमण से शिक्षा का ढांचा प्रभावित हुआ और एक समय ऐसा आया, कि देश अनेक समस्याओं, रूढ़ियों, कुप्रथाओं, रीति रिवाजों, कट्टरता से घिर गया।परिणाम स्वरूप राष्ट्र चेतना लगभग सात सौ सालों तक अचेतावस्था में चली गई।कतिपय राष्ट्रपुरुषों को छेाड़ दिया जाये तो कोई सम्पूर्ण देश की बात करने वाला इस समय में न हुआ। राष्ट्र -राष्ट्रीयता व संस्कृति पाष्चात्य संस्कृति भाषा से प्रभावित होती रही।लम्बे प्रयासों, बलिदानों, संघर्षोंपरान्त मुक्ति मिली तो खण्डित राष्ट्र के रूप में।एक भाग पाकिस्तान के रूप में अलग हो गया।
आजादी के बाद शिक्षा का ढांचा जिस तरह से तैयार किया गया उसका उद्द्ेष्य भारतीय जनमानस की अपेक्षाओं, राष्ट्रीयता के मापदण्डों के अनुरूप कम लार्ड मैकाले की पद्धति -पाष्चात्य आकाओं -भाषाविदों को प्रसन्न करना षायद अधिक था।यदि ऐसा न होता तो आजादी के पांच दशक बाद ही देश के नैतिक मूल्य, आचरण की पवित्रता इस तरह न खो जाती।देश की नयी पीढ़ी द्वारा विविध विषयों का महत्व नौकरी पाने के उद्द्ेष्य से दिया जाने लगा।इतिहास, भूगोल, विज्ञान, अर्थषास्त्र, चिकित्सा, वैज्ञानिक, इंजीनियरिंग आदि विषयों पर जरूरत से अधिक ध्यान दिया गया; जोकि लाभप्रद कम हानिकारक अधिक सिद्ध हुआ।जब प्रतिभाओं की आवष्यकता पड़ी, प्रतिभा पलायन होने लगा।पैसे का मूल्य गिरा ही; नैतिक -अध्यात्मिक मूल्य भी गिर गये।जबकि यह होना चाहिए था, कि देश की युवा पीढ़ी का शिक्षा, ज्ञान, विज्ञान ,अध्यात्म, नैतिक मूल्यों सभी में आगे बढ़ाने की बात होती।सर्वप्रथम दायित्व शिक्षा व शिक्षाषास्त्रियों का यह होना चाहिए; कि शिक्षा के साथ देशवासी देश की संस्कृति -भाषा, नैतिक मूल्यों, आचरण की पवित्रता को जानते।उस पर सर्मपण भाव बनाये रखते हुए विष्व के प्रत्येक स्तर पर अपनी योग्यता के श्रेष्ठतम प्रतिमान स्थापित करते।राष्ट्र चेतना उसकी आत्मा का जिसको ज्ञान नहीं वह भारतीय कैसा ? उसकी प्रगति क्या और उस शिक्षा पद्धति शिक्षा की सार्थकता कैसी ? जो देश वासियों को देश से की संस्कृति भाषा, मूल्यों व आदर्षों से दूर कर दे।
साथ ही प्रष्न यह भी उठता है कि जिन समस्याओं के कारण देश का विभाजन हुआ वह विभाजनोंपरान्त ही नहीं आज तक वैसी ही विद्यमान हैं।यही नहीं सुरसा की भांति मुख फैलाकर खड़ी हो गयीं।कुछ राजनीतिक दलों द्वारा कट्टरता की ओर ले जाया गया तो कोई जाति -भाषा के नाम पर देश में भेदभाव फैलाकर, हत्यायें करवाकर अपने राजनीतिक स्वार्थ की रोटियां सेंकते रहे।समस्त देश में कहीं जाति, कहीं धर्म, कहीं भाषा, कहीं अलगाव, आतंक नक्सलवाद की आंधी चल पड़ी।

उपर्युक्त सभी समस्याओं के मूल में मेरी दृष्टि में एक ही कारण है देश की शिक्षा व्यवस्था की असफलता।उसके उद्द्ेष्यों की निरर्थकता।जिसके कारण ही देश के राजनेता ऐसे निर्णय नहीं ले सके जो देश की समस्याओं का समाधान करते साथ ही अपने आपको जन आकांक्षाओं पर खरा उतार पाते। परिणाम स्वरूप हर लोकसभा चुनाव में हर तीसरा मतदाता बेमन से मत डालता रहा है।
अस्तु , अब भी समय है कि देश की शिक्षा व्यवस्था में सार्थक -निरर्थक होने के कारणों का मूल्यांकन किया जाये।उसके प्रभावों -उद्द्ेष्यों को समझकर उचित परिवर्तन कर सामान्य से विद्वान तक शिक्षा -पद्धति -पाठ्य विषयों की सार्थकता सिद्ध करने योग्य बनाया जाये।शिक्षा पद्धति -पाठ्यक्रमों में ऐसी भावनायें आवष्यक रूप से निहित हो ,जो कि देश वासियों में देश की अवधारणा को बगैर किसी भेदभाव के जीवित रख सकें।यदि समग्र देश में एक जैसी शिक्षा पद्धति हो तो बहुत अच्छा होगा।उससे अधिकारों के साथ कत्र्तव्य के प्रति सजग भी देश वासी दिखेगंे।हाल ही में प्रारम्भ राष्ट्रीय पाठ्यचर्या 2005 के अन्र्तगत बदलाव प्रषंसनीय है भविष्य में सार्थक परिणाम दिखेंगे, पर सभी के लिए समान शिक्षा के अधिकार व नाबालिग अवस्था में धार्मिक शिक्षा पर रोक के बिना सफलता संदिग्ध ही दिखती है।

 

 

 

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