शशांक मिश्र भारती
जनता के सेवक
जनता ने जनता हित भेजा है
जनगण के लिए
दशकों से सँभालकर
फिर-
कुछ तो नया कर
निरालाकर
कैटल क्लास न कह
अपने बुने जाल से बाहर निकल,
देख-
अपने चारों ओर
आँखें उठाकर
रो रहे घीसू को
देश पर बलिदान
सैनिक की’ किसी विधवा को
बेटे के लिए सूख गए
किसी माँ के आँसुओं को
प्रतीक्षा में उड़ गए
राखी के रंगों को,
कुछ तो देख-
जनपथ से व्याप्त गाँव तक की
अराजकता,
महँगाई के छक्कों को।
भूख से भी पेट-पीठ में मिलाये
तड़पती मुनिया को
दूध नहीं ,पर छाती से लगाये
आँसू पिलाती झुनिया को,
कुछ तो देख,
कुछ तो नया कर
उनके लिए-
जिनकी दुआओं के पंख चढ़ कर
तू पहुंचा जमीन से आसमान पर
हे जनता के सेवक
तुझसे ही यह निवेदन है!
तुझसे ही!! कुछ तो कर।।
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