Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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खेती किसानी और आढ़तीगिरी

 

तरक्की पसंद देश को खेती किसानी में सिर खपाने का समय नहीं रहता, ठीक वैसे ही जैसे गांव के किसान का ही कोर्ई बच्चा नगरों-महानगरों में कृषि विज्ञान की पढ़ार्ई करने के बावजूद गांव में रहकर उन्नत खेती करके मिसाल कायम करने के बारे में नहीं सोच सकता। इसके पीछे कारण है, यदि वह किसानी करने लगा तो घाटे की खेती में न तो अपना पेट भर पाएगा और न ही अपना और अपने बच्चों का भविष्य ही संवार पाएगा। इसे मनोवृत्ति कहें या हकीकत का सफर, खेती किसानी से खुद ही किसान ही अपने बच्चों को दूर रखना चाहते हैं। उदारीकरण के पहले तक खेती रिटर्न दे देती थी। एक आम किसान जो खाने पीने लायक अनाज-दलहन बोने के बाद थोड़ी बहुत वाणिज्यिक खेती करते तो दो साल में एक बेटी की शादी कर लेता था। बहुत से किसान गन्ने की खेती से पक्का घर भी बनवा हैं। मैं यह उदाहरण उस बिहार की खेती से दे रहा हूं जहां सरकारी अव्यवस्था का आलम ज्यादा हुआ करता था। सरकारी गोदामों में खाद नहीं रहते थे। बीज के बारे में तो बाजार ही सहारा था या फिर पारंपरिक बीज ही उपयोग में लाए जाते थे। अब जब ग्रीन रेवोल्यूशन के दूसरे दौर में सरकारी सूचनाएं और बीज की उपलब्धता बढ़ी या ज्यादा उपज देने वाली फसलें बाजार में आ गईं तब भी किसान खेती क्यों छोड़ रहे हैं। वही किसान जो गन्ना बेचकर अपने बेटे को इंजीनियर और आइएएस बना दिया था, आज उसके सारे के सारे खेत बंटाई के भरोसे है। उस किसान के पास सारे गुण हैं, आज भी वह खेती कराने में सक्षम हैं। पैसा-पूंजी भी घर पर बहुत हो गया है। बावजूद इसके वह खेती करना क्यों नहीं चाहता, क्योंकि लागत के हिसाब से रिटर्न आ ही नहीं सकता। हल से लेकर हार्वेस्टिंग तक सब कुछ मशीनों के भरोसे हो गया है। मजदूर मिलते नहीं और मनरेगा के रेट पर दिहाड़ी देकर खेती कराना कितने फायदे का सौदा होगा, इसकी कल्पना आप स्वयं कर सकते हैं।

 


आप एक उदाहरण से इसे समझ सकते हैं। एक एकड़ की गेहूं की बुआई में प्रति डिसमिल यदि वह तीन किलो प्रतिग्राम के हिसाब से डीएपी-पोटास देता है तो यह मात्रा करीब 90 किलोग्राम बैठता है जिसकी बाजार में कीमत प्रति किलो 30 रुपये के हिसाब से 2700 रू बैठेगा। अगर नामी कंपनी का बीज नहीं खरीदे तो सारा खर्र्च पर पानी फिरना तय है। यदि नक्कालों- मिलावटों से आप बच गए और आप एक एकड़ के लिए कम से कम 55 किलो बीज खरीदते हंै तो इसकी कीमत बाजार दर पर 2200-2500 तक बैठती है। इसके बाद ट्रेक्टर से दो बार जुताई का खर्च 600 गुणा दो यानी १२०० रुपये हुआ। यदि वह स्वयं मेहनत करता है तो ठीक नहीं तो दो मजदूर तो लगेंगे ही जिसकी न्यूनतम मजदूरी 350 से कम नहीं होगी। उसके बाद सिंचाई, यदि अपना पंपिंग सेट नहीं है तो 80 रू घंटे की दर से पानी खरीदना है। एक एकड़ के पटवन में कम से कम 10 घंटे लग ही जाते हैं अच्छी सिंचाई के लिए, जिसकी कीमत 800 रू बैठेगा। पटवन के बाद एक एकड़ में प्रति डिसमिल डेढ़ किलो की दर से यूरिया देने होंगेे तो 50 किलो कम से कम लगेगा जिसकी कीमत 600 के करीब बैठेगा। अब आती है दूसरी सिंचाई, जिसमें 1400 रू की लागत तय है। तीसरी सिंचाई में यह लागत डेढ़ गुना हो जाती है, क्योंकि मौसम गर्र्म होने लगता है। यानी कम से कम 2000 रू। इसमें यूरिया का खर्र्च भी शामिल कर लें तो एक हजार और खर्र्च होना है। बहुत से किसान दूसरी तीसरी सिंचार्ईं में यूरिया नहीं देते। अंत में मशीन से हार्वेेस्टिंग यानी दौनी का खर्च न्यूनतम १०००८ मान कर चलिए। यानी कुल खर्च 13500 हुआ।

 


यह अनुमानित राशि स्वयं मेहनत करने वाले किसानों के लिए है, जिसे गेहूं की बुआई-सिंचाई में निवेश करना है। उसके बाद ओला-आंधी से फसल बच गर्ई तो कटाई में लगभग एक तिहाई हिस्सा मजदूरों के नाम जाता है। जिसमें कटनी, ढुलाई, दौनी-निरौनी तक के कार्य शामिल हैं।

 


मान लीजिए एक एकड़ मेें फसल खूब जमी तो 18 क्विंटल तक उपज संभव है। बिहार सरकार के खरीद एजेंसियों को बेचते हैं तो आपको 950 रू प्रति क्विंटल की दर से 17,500 रू मिलेंगे। यानी आपके पास 4000 रुपये का मुनाफा होगा। छह माह की मेहनत का फल, एक एकड़ में एड़ी चोटी एक करने का फायदा? जिसके पास एकड़ ही जमीन हो तो वह क्या करेगा? जिसके पास पांच एकड़ हो तो वह गेहूं बोना अच्छा समझेगा या बंटार्ई या फिर हुंडे पर देना बेहतर क्यों नहीं समझेगा और अपने बच्चों को दिल्ली-पंजाब की फैक्ट्रियों में काम करने के लिए क्यों नहीं भेजेगा?

 


अब आप स्वयं अंदाजा लगा लीजिए कि आपके छह माह तक पाला, जाड़ा, धूप सहने का रिटर्न क्या मिला? आपकी लागत क्या थी? ऐसे में परिवार के खाने के लिए साल भर तक काम चल जाए तो यह निवेश मजबूरी है बाकी गेहूं बाजार के उतार चढ़ाव के हवाले है। अगस्त तक रोककर रखा नहीं जा सकता क्योंकि घुन और चूहे उसमें से अपना हिस्सा निकाल लेंगे
यह है खेती का पहला पहलू। दूसरा पहलू है सब्जी की खेती करने वाले जंबाज किसानों का, जो सालों भर चौबीसों घंंटे खेती में ही जुटे हुए हैं, उनके लिए सामाजिक संबंध और रिश्तेदारी भी छूट जाते हैं। उनकी फसल की लागत और रिटर्न का संबंध यहीं तक सीमित है कि वह स्वयं जाकर खुदरा बिक्री करता है या दरवाजे पर ही अपनी फसल नीलाम करता हैं। जैसे शहरों में मंडियों से निकलते ही सब्जियों के दाम तुरंत प्रभाव से चार गुने हो जाते हैं वही हाल गांव देहात में भी है, लेकिन असर इसलिए पता नहीं चलता कि वहां ज्यादा सब्जी उगाने वाले किसान खुदरा बिक्रेता भी हैं। वहां भी किसान और खरीददार के बीच का अंतर कम से कम 5 गुना तो होता ही है। पटना की सब्जी मंडी और छोटे दुकानों-ठेलों पर दस गुना का भी अंतर देखने को मिल जाता है।

 


दिल्ली-एनसीआर की थोक मंडियों और ठेला बाजारों में यही हाल है। बाजार के हवाले रहने पर हमें उसकी कमियों-खासियतों का गुलाम तो बनना ही पड़ेगा। अभी भी आलम यह है कि 40 रूपये किलो से सब्जी बेचते-बेचते वह न्यूनतम 10 रू किलो तक बेच सकता है। भले ही वह सड़क पर सब्जी फेंक देना गंवारा करेगा लेकिन उसे 2-3 रू किलो बेचना पसंद नहीं करता। क्योंकि बाजार गिर जाएगा और लोग अगले दिन भी इसी भाव की आशा करने लगेंगे। उसका मूलधन और मुनाफा तो पहले ही पांच किलो में निकलकर बाहर आ जाता है। छह माह तक पाला-गर्मी में हाड़ मांस गलाने-जलाने वाले किसान को खूब तेजी में 10 रू किलो मिल पाते हैं तो सुबह से दोपहर तक मेहनत करने वाला ठेला चालक मूलधन का पांच गुना छह घंंटे में बना लेता है। सुबह पूंजी लगाया और शाम को नर्ई पूंजी तैयार। इसे कौन रोकेगा? कैसे रोकेगा? सरकार यह व्यवस्था करेगी कि किसान से दो रू किलो सब्जी खरीदने वाला आढ़ती उसे 4 रू किलो बेचे और खुदरा बिक्रेता अधिकतम 10 रू किलो ही बेचें?

 


एक ओर देश का अन्नदाता पिस रहा है तो दूसरी ओर उपभोक्ता। लेकिन बीच का तीन आदमी मिनटों, घंंटों में रोजाना पांच गुना का वारा न्यारा कर लेता है। किसान मजबूर हैं लेकिन ये आढ़ती और खुदरा बिक्रेता मजबूर नहीं हैं। यही हमारी बाजारू व्यवस्था का शाश्वत सत्य है, जिससे पार पाने के लिए बहुत ही कठोर कदम उठाने होंगे। इसमें उपभोक्ता को लडऩा भी पड़ेगा। इसके लिए भी आम जन को एक आंदोलन चलाना पड़ सकता है।

 


शशिकान्त सुशांत

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