शशिकान्त सुशांत
विभिन्न समाचार पत्रों में सरकार ने आधे पेज का विज्ञापन देकर किसानों से अपील की है कि वे दलहन और तिलहन की खेती करें और ज्यादा से ज्यादा मूल्य पाएं। भारत सरकार के उस विज्ञापन में अरहर यानी तूअर का खरीद मूल्य सबसे ज्यादा 5500 रुपये बोनस सहित दिए जाने की घोषणा की गई है। इसके बाद मूंग का खरीद मूल्य 5200 रुपये वैसे ही अन्य दालों की कीमतें तय की गई हैं। सबसे मजेदार बात यह कि मोटे अनाज जैसे ज्वार-बाजरा की भी का भी समर्थन मूल्य दो हजार के लगभग तय है। ऐसे में किसानों से अपील का असर क्या होगा यह तो सरकार जाने लेकिन मेरा निजी मत है कि जिस अरहर के लिए सरकार ने 5500 रु तय किए हैं वह नाकाफी है। क्योंकि मूंग और उड़द और मसूर का समर्थन मूल्य जहां 5200 रु है ऐसे में किसान ज्यादा जोर मूंग और मसूर पर ही देंगे क्योंकि ये तीनों फसलें छह माह में तैयार हो जाती हैं जबकि अरहर पूरे साल भर में तैयार होता है। यानी एक ही खेत में जहां खरीफ में उड़द के साथ ज्वार और मक्का की फसल ली जा सकती है और उसके बाद रबी में मसूर और मूंग की भी फसल ली जा सकती है। ऐसे में किसानों के लिए ज्यादा फायदेमंद मसूर, मूंग और उड़द है। अरहर तो तीसरे स्थान पर आता है। अरहर की खेती के साथ दिक्कत है कि महंगे बीज भी धोखा देने लगे हैं जब फसल तो बंपर दिखती है लेकिन फली नहीं लगती, फसल बांझ हो जा रही हैं। मोन्सेंटा के बीज भी प्रमाणिक नहीं कहे जा सकते।
सबसे ताज्जुब की बात तो यह है कि भारतीय कृषि शोध संस्थानों ने दलहन की खेती के लिए क्या शोध किया है और कितने प्रमाणिक बीज तैयार किए हैं यह देश के किसानों को पता ही नहीं है। सरकारी कार्य संस्कृति का आलम यह है कि अखबारों और नेशनल टीवी चैनलों में विज्ञापन दिया जाता है कि किसान बीज यहां से खरीदें और यह फसल बोएं। जबकि होना यह चाहिए था कि हरेक पंचायत में कृषि पदाधिकारियों को मई-जून मे कैंप लगाना चाहिए था और सरकारी सस्ते बीजों का वितरण करना चाहिए था। इससे किसानों में दलहन की खेती के प्रति झुकाव बढ़ता। आज जब राष्ट्रीय अखबारों में विज्ञापन देकर सरकार किसानों को रिझाने का प्रयास कर रही वह कार्य वह दो माह पूर्व कैंप लगाकर ज्यादा प्रभावकारी तरीके से किया जा सकता है। बाजार के बीज के भरोसे किसानों को छोडऩे का ही परिणाम है कि आज किसान अपने पारंपरिक बीज पर ही ज्यादा भरोसा करते हैं। महंगे मोंसेंटा के बीज किसानों की कमर तोड़ते ही हैं साथ ही किसानों को उस फसल की बुआई से विरक्त कर देते हैं।
बेशक दलहन की खेती आज देश के लिए बहुत जरूरी हो गया है लेकिन किसानों के लिए विकल्प सीमित हैं। अरहर की खेती में साल भर खेत को फंसाना किसी मेहनती किसान के लिए आज फायदे का सौदा नहीं है और तिस पर आलम यह कि अगर फसल चौपट हुई तो लागत भी जाने का डर। 5500 रु के लालच में किसान दो फसलों से होने वाली आय को दरकिनार नहीं कर सकते।
एक ओर सरकार विदेशों में कांट्रेक्ट खेती के तहत अरहर और अन्य दलहनों की खेती करने जा रही है तो दूसरी ओर देश के किसानों तक उत्तम बीज और सार्थक संवाद तक कायम नहीं कर सकी है। क्या सरकार को पता नहीं है कि देश की हजारों एकड़ दियारा भूमि बेकार जंगल में तब्दील हो चुकी है जो आज से 25 साल पहले दाल उत्पादन के मामले में टॉप हुआ करती थी। इन दियारा क्षेत्रों में केवल रबी फसल में ही चना, मूंग, उड़द, मसूर, खेसारी, तिल की इतनी बंपर पैदावार हो जाती थी कि वहां के किसान सालों भर अपने पशुओं को दाल खिलाते थे। आज जिन दियारा क्षेत्रों में दाल का उत्पादन हो रहा है वहां नीलगाय और घोड़पडासों ने किसानों की नाक में दम कर रखे हैं। इन जानवरों का प्रिय भोजन दलहनी फसलें ही होती हैं। सबसे पहले इन फसलों को चट करते हैं उसके बाद ही गेहूं और मक्का को नुकसान पहुंचाते हैं। इसका भी समग्र समाधान अभी तक नहीं हो सका है।
सबसे ताज्जुब की बात यह है कि दो साल में हमारे कृषि मंत्री को दलहन के उत्पादन के लिए कोई विशेष कार्य योजना बनाते या घोषणा करते हुए नहीं देखा सुना गया। कृषि मंत्री जिस क्षेत्र से आते हैं वहां की हजारों एकड़ दियारा भूमि बेकार पड़ी हुई हैं। क्षेत्र से पलायन की रफ्तार भी खतरनाक स्तर पर है। दलहन और तिलहन की खेती का पायलट प्रोजेक्ट बनाकर उन युवाओं को बिहार की धरती पर ही मेहनत करके हजारों कमाने के लिए प्रेरित किया जा सकता है। एक साथ दो निशाने सधेंगे। अब जब दाल की कीमत नाक के ऊपर से गुजर रही है तो सरकार को विज्ञापन देकर किसानों को दलहन की खेती की ओर मुडऩे का आह्वान करना पड़ रहा है। ऐसे में किसान दो राहे पर खड़े हैं। खेती भी अब अच्छा खासा निवेश मांग रही है, केवल परिश्रम के बल पर दलहन की खेती संभव होती तो किसान अवश्य ही सरकारी समर्थन मूल्य के लालच में पड़ते, अब जब ज्वार और बाजरा से ही अगर उसे 2000 रु मिल जाएं तो पांच हजार के लिए साल भर खेत क्यों फंसाकर रखे?
अब दूसरा महत्वपूर्ण सवाल किसानों के लिए पत्रकारिता कर रहे पत्रकारों और पत्रिकाओं के बारे में। किसानों के नाम पर ज्यादातर पत्रिकाएं महानगरों से ही निकलती हैं, उसके दफ्तर महानगरों में हैं, और पत्रकार जो महानगर में जन्म लिया और शिक्षा दीक्षा ली वह किसानों की हित की बात लिखता है। जिसे यह पता नहीं होता कि खरीफ और रबी फसल में क्या अंतर है और कौन सी फसल किस गु्रप में आती हैं। यहां तक कि अंग्रेजी में भी किसानों के लिए पत्रिकाएं हैं। हो सकता है कि बहुत से किसान अंग्रेजी जानते हैं लेकिन क्या ये पत्रिकाएं बहुसंख्यक किसानों के लिए कुछ कर पाती हैं, सूचना पहुंचा पाती हैं? लैब से लेकर लैंड तक पहुंचने का दावा करने वाली किसान पत्रिकाओं की पहुंच कहां तक है? दिल्ली महानगर में ही सबसे ज्यादा किसान बसते हैं जो खेती करने के लिए इन पत्रिकाओं को पढ़ते हैं? सरकार पर सवाल उठाया जा सकता है कि वह अपनी परियोजनाओं को किसानों के खेतों में पहुंचाने में इसलिए नाकामयाब रही क्योंकि सरकारी बाबुओं की कार्य संस्कृति जनहित नहीं बल्कि नौकरी बचाए रखने का है। कुछ राज्य सरकारों ने सख्ती दिखाई तो वहां कृषि सशक्त रोजगार का साधन बना लेकिन अन्य राज्यों की हालत क्या है, सरकारी स्कीमें फाइलों में कैद हैं, बुआई होने के बाद सरकारी बीज प्रखंड कार्यालय में पहुंचते हैं और आपसी बंदरबांट कर लिए जाते हैं। नीतीश कुमार द्वारा सुशासित राज्य बिहार की हालत और ही खराब है। बिहार में किसान अपनी नियति के भरोसे खेती करता है और जो उपज होती है वह बाजार के भरोसे, बाजार द्वारा निर्धारित मूल्य पर बिकती हैं, वहां सरकारी समर्थन मूल्य का कोई औचित्य नहीं है क्योंकि सरकारी खरीद एजेंसियां नदारद हैं। बिहार के बाजारों में किसान पत्रिकाएं भी नहीं दिखाई देती और न ही कोई ऐसा किसान पत्रकार नजर आता है जो किसी गांव में जाकर किसानों से उसकी समस्या समझे और अपना बहुमूल्य सुझाव दे। किसान सरकार के भरोसे न तो खेती कर सकता है और न ही अपना और अपने परिवार का पालन पोषण कर सकता है। बड़े किसानों की समस्या इस कॉलम में शामिल नहीं हो सकतीं। बड़े किसानों के साथ सुविधा यही होती है कि वे थोक में अपने माल को बेचते हैं, एक ही फसल ज्यादा रकबे में लगाते हैं इससे नुकसान की भरपाई आराम से हो जाती है। बड़े किसानों के पास जगह होती है, वे थोड़े दिनों के लिए अनाज आदि का भंडारण करके बाजार मूल्य हासिल कर लेते हैं। सबसे ज्यादा परेशानी मध्यम और सीमांत किसानों के लिए है जो अपनी जरूरत से ज्यादा अनाज या फसल को बाजार के भरोसे बेचकर लागत निकालने को मजबूर होते हैं।
कृषि को बाज़ारीकरण से जोडऩे के लिए हमारी कलम क्या करेगी जो करेंगे वो किसान ही करेंगे? आज भी कुछ किसान हैं जो बाजार से जुड़े हैं लेकिन वो दो परसेंट हैं बाकि 98 परसेंट किसान खेती करेंगे की बाजार में माल बेचेंगे? एक ही काम हो सकता है या तो खेती करें या बाजार में दुकानदार बनकर बैठें क्या करे किसान? गेहूं उपजायेंगे या लाला बनकर दुकान खोलेंगे या मिल खोलकर आटा पीसकर बेंचे? सारा फ़ायदा तो यहीं है की 13 रु किलो गेहूं खरीदकर ये मिल वाले 25 रु किलो आटा बेच रहे हैं? किसान ने छह माह तक धूप और पाला सहा तो 13 रू मिले और तीन दूकान चलकर गेहूं दोगुना हो गया? इसमें किसान क्या करें? मजबूरी के सिवाय उनके पास क्या चारा है जो दाम मिले वो ले लो और आगे की खेती में जुत जाओ।
मेरा सवाल और मर्म उन किसानों के नाम नीतियां बनाने वाली सरकारों और उसे किसान हितकारी बताने वाले पत्रकारों से है, उस पत्रकारिता को क्यों माफ़ किया जाये जो किसान के नाम पर कलम चला रही हैं और डंके की चोट पर अपने को किसानों की किस्मत बदलने का दावा कर रहे हैं। सरकार की कोई भी नीति हाड़तोड़ मेहनत करने वाले किसानों के लिए नहीं बनती उसका लाभ वे किसान उठाते हैं जो हज़ार बीघा जमीं वाले हैं और उसके साड़ी फसल थोक के भाव में बड़े उद्योपतियों के पास जाती हैं या स्वयं का आढ़ती है लेकिन छोटे किसान अपनी फसल औने पौने दामों में बाजार में बेचने को मजबूर होते हैं।
आज दाल की देश में भारी किल्लत हो गयी है इसके पीछे क्या कारण हैं हमारे महानगरीय किसान पत्रकारों को पता है? सरकारी नीति ही जिम्मेदार है, अरहर जब किसान से खरीदो तो उसकी न्यूनतम कीमत तय करते हैं 55 रु किलो और वह जब दाल बनकर बाजार में आ जाये तो उसकी कीमत 200 रु किलो हो गया क्या अरहर से दाल बनने में और दो दुकानों से गुजरने के बाद उसकी कीमत इतनी हो गयी, उसके लिए सरकार के पास न्यूनतम का कोई फॉमूला नहीं है? क्या ये किसान पत्रकार के लिए उठाने का विषय नहीं है? दाल की भयंकर किल्लत का कारण यही है की किसानों ने अरहर और दलहन की खेती ही बंद कर दी? शार्ट खेती के तहत सब्जिय़ां उगाने शुरू कर दिया तीन माह में जो मुनाफा होगा, घाटा झेल लेंगे। अरहर बोकर साल भर खेत कौन बंधक बनाए रखे और फसल मारी गई तो कुछ भी नहीं आएगा और कुछ हो गई तो 55 रु किलो बेचने होंगे? इससे तो अच्छा है की भिंडी और टोरी बो दो और जो भी आ जाये वो अरहर और मूंग मसूर से ज्यादा रिटर्न दे जायेगा? किसानों के नाम पर निकलने वाली पत्रिकाएं और पत्र इस मामले को कभी उठाते हैं की हमारे देश की सरकारी शोध संथाओं ने दाल को लाभदायक बनाने के लिए क्या किया और उसका प्रचार और पहुँच किसानों तक हुई क्या? इसके लिए किसान पत्रकार और पत्रिकाएं जिम्मेदार नहीं हैं? शोध सरकारी औपचारिकता बनकर रह गई है और बाजार में मोन्सेन्टा के महंगे बीज उपलब्ध हैं? क्यों? किस काम आ रहे हैं ये सरकारी शोध किसानों के लिए? सरकार दाल आयात पर अरबों करोड़ों रु खर्च कर देती हैं लेकिन किसानों को प्रोतसहित करने के लिए मुफ्त में अरहर और मसूर मूंग के बीज देकर और उस फसल को उचित कीमत पर खरीदकर बफर स्टॉक क्यों नहीं बना लेती? सरकार अगर किसानों से अरहर 50 रु किलो खरीदेगी तो दाल अधिकतम 70 रु किलो से ज्यादा नहीं बिकनी चाहिए और सरकार ऐसी नीति बना दे तो समझिए कि किसानों के हित में ही बनती हैं सरकारी नीतियां।
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