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किसानों की चिंता, केंद्रीय कानून और पशु अधिकार कार्यकर्ता

 

शशिकान्त सुशांत

यदि वन्य जीव अधिनियम किसानों के खेत में लागू कीजिएगा तो देश को रोटी-चावल-दाल कौन देगा? और यदि ्रपशु अधिकार कार्यकर्ता इतने ही संवेदनशील हैं तो वे बिहार आएं और यहां से करोड़ों की संख्या में काले व लाल बंदरों, लाखों की संख्या में नील गाय-घोड़पडास सम्मान के साथ बाहर ले जाएं, किसान उन्हें लाखों दुआएं देंगे, बधाई देंगे, धन्यवाद कहेंगे।

हमारे देश का संविधान संघीय व्यवस्था पर आधारित है। ज्यादातर अधिकार केंद्र के पास हंै और कार्यपालिका कार्य राज्यों को करने हैं, जनता के पास सीधे राज्य सरकार को ही जाना होता है, केंद्र सरकार का आदेश होता है, बजट होता है लेकिन कार्यक्रम क्रियान्वयन राज्य सरकारें ही करती हैं, इसलिए उसे हर तरह की जन समस्या का सामना एक साथ करना पड़ता है और ऐसे में जब केंद्रीय कानून आड़े आता है तो वह केंद्र सरकार को पत्र लिखती हंै ताकि वह पेचीदा मामले में इजाजत दे ताकि जनता को सुविधा उपलब्ध कराया जा सके।
जल संसाधन और पर्यावरण संबंधी ऐसे ही बहुत सारे कानून हैं, नियम हैं जिसे यदि उसे कड़ाई से लागू कर दिया जाए तो राज्य सरकार को अपनेे ही राज्य से बहती नदी से पानी लेने से पहले भी केंद्र से अनुमति मांगनी अनिवार्य है और यदि बाढ़ आ जाए तो उस अतिरिक्त पानी पर भी राज्य सरकार को कोई अधिकार नहीं हैं। भले ही व्यवहारिक रूप से इस पर ध्यान नहीं दिया जाता है लेकिन ऐसा कानून है। वही हाल भूजल दोहन को लेकर है। पर्यावरण संबंधी सारे अधिकार केंद्र के पास है। विकास और पर्यावरण के बीच तालमेल बिठाने में हमारे राजनेता और विशेषज्ञ नाकाम रहे हैं इसलिए कम विकास के बावजूद पर्यावरण का नुकसान ज्यादा होता है हमारे देश में। सब कुछ दूसरों पर छोड़ दिया जाता है। और जब मामला बिगड़ता है तो केंद्र और राज्य सरकारें एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप का खेल खेलना शुरू कर देती हैं ऐसे में जनता विभ्रम में रहती है कि आखिर दोषी है कौन?
ताजा मामला बिहार में नीलगायों को मारने के केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय के आदेश के बाद महिला एवं बाल विकास मंत्री मेनका गांधी द्वारा उठाए गए सवालों से सामने आए हंै। दो मंत्रालयों के बीच सामंजस्य और रार से ज्यादा इस मामले में मेनका गांधी के उस हठ को देखा जा सकता है जिसमें वह मानव हित से ऊपर उठकर भी पशु हित की चिंता करती हैं। अपने स्तर पर वह सही हो सकती हैं लेकिन बिहार के किसान आजकल जिस तरह नीलगाय, घोड़पडास और काले मुंंह वाले बंदरों से आतंकित हैं इसकी हकीकत स्वयं देखकर ही समझी जा सकती है। इन पंक्तियों का लेखक भी किसान है वह भी पिछले सात साल से नीलगायों और बंदरों के आतंक से आजिज आकर सारे खेत बंटाई दे डाला है, आम के बागों को भी किसी और के हवाले कर दिया है। वह इसलिए कि वह आदमी मेहनत करेगा नीलगायों और बंदरों से अपनी फसल बचाकर जो भी दे देगा वही काफी होगा। स्वयं खेती में निवेश करें और फसल तैयार भी हो जाए तब तक पता चले रात भर में नीलगायों ने सफाचट कर दिया और दिन में बंदरों की सेना बची खुची फसल भी तहस नहस कर डाली। आम और लीची के मंजर को इन बंदरों से बचाना मुश्किल हो गया है। जब मंजर ही नहीं बचेगा तो टिकोले और आम की आशा कैसे की जा सकती है? प्राकृतिक प्रकोप से मंजर और टिकोले बर्बाद होते हैं तो भी बहुत कुछ बच जाते हैं लेकिन बंदरों की सेना से कुछ भी बचने की आशा करना बेकार है, उल्टे वृक्ष की डालियां भी टूटती हैं। अंतर यही है कि बंदरों की सेना दिन में विनाश करती है और नीलगायों के झुंड रात में बर्बादी की इबारत लिखती हैं। ऐसे में किसान क्या करें? धार्मिक आस्था के कारण न तो वे बंदरों को मार सकते हैं और न ही नीलगायों को। अंतत: फसल बर्बादी देखकर संतोष करने के सिवाय और क्या चारा है?
देश में दलहन के उत्पादन को लेकर सरकार की चिंता बढ़ती जा रही है। दाल निर्यात करने वाले देश परेशान हैं कि आखिर भारत को कितना दाल निर्यात करें? लेकिन देश में दलहल उत्पादन में कमी के कारणों में एक प्रमुख कारण ये नीलगाय और घोड़पडास हैं जिसके आतंक से आजिज आकर किसानों ने दलहन की खेती करनी ही बंद कर दी। यहां आपको बताना जरूरी है कि गेहूं मक्के की फसल से पहले ये नीलगायें मसूर और चना और अन्य दलहनी फसलों को ही खाती हैं क्योंकि इसके तने में मिठास होती है। जब नीलगायों के झुंड आते हैं तो वे सबसे पहले मसूर और चने के खेत साफ करते हैं उसके बाद ही गेहूं और मक्का के खेत में घुसते हैं। दाल उत्पादन के लिए विख्यात बिहार का मोकामा टाल क्षेत्र इन नीलगायों के आतंक के कारण दाल की बुआई ही छोड़ दिया है। एक किसान यदि दलहन की खेती नहीं करेगा तो दूसरा भी नहीं करता। इसी तरह दलहन ने टाल छोड़ दिया। अब वहां गेहूं और मक्का बोए जाने लगे हैं। क्योंकि जब नुकसान ही उठाना है तो महंगे फसल का क्यों उठाएं सस्ता ही सही। नीलगायों का यह आतंक केवल पटना, बेगूसराय, खगडिय़ा और चंपारण में ही नहीं बल्कि सीवान, छपरा तक पहुंच गया है। नेशनल हाइवे-74 पर मुजफ्फरपुर से लेकर गोपालगंज तक रोजाना दर्जन भर नीलगायों के ट्रकों के टकराने की घटनाएं होती हैं। इससे प्रमाणित होता है कि ये झुंड के झुंड बनाकर जिला की सीमा को लांघती हैं।
ऐसे में यदि केंद्र सरकार को दलहन उत्पादन के लिए किसानों को प्रोत्साहित करना है तो सबसे पहले उनकी समस्याओं का निदान करें। पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावडेकर ने किसान हित में ही यह फैसला लिया है, इसकी प्रशंसा की जानी चाहिए। यदि वन्य जीव अधिनियम किसानों के खेत में लागू कीजिएगा तो देश को रोटी-चावल-दाल कौन देगा? और यदि ्रपशु अधिकार कार्यकर्ता इतने ही संवेदनशील हैं तो वे बिहार आएं और यहां से करोड़ों की संख्या में काले व लाल बंदरों, लाखों की संख्या में नील गाय-घोड़पडास सम्मान के साथ बाहर ले जाएं, बिहार के किसान उन्हें लाखों दुआएं देंगे, बधाई देंगे, धन्यवाद कहेंगे। और यह भी दावा के साथ कहा जा सकता है कि टाल समेत कई जिलों के दियारा क्षेत्र में दोबारा मसूर-चना और अन्य दलहनों का उत्पादन प्रारंभ हो जाएगा।
बहरहाल, पिछले साल मानव-वन्यजीव संघर्ष में 500 से ज्यादा लोगों मारे गए थे। पर्यावरण मंत्रालय के अनुसार वन्यजीव संरक्षण कानून, 1972 में मानक परिचालन प्रक्रियाएं तय की गई हैं और मानव-पशु संघर्ष के वैज्ञानिक प्रबंधन की अनुमति उत्तराखंड, बिहार और हिमाचल प्रदेश को दी गई है। पर्यावरण मंत्रालय ने 100 से 500 की संख्या में नीलगायों की मारने की अनुमति दिया है लेकिन बिहार में आलम यह है कि ये करोड़ों की संख्या में हैं। इसका स्थाई निदान जरूरी है। इन पंक्तियों के लेखक को केंद्र-राज्य की राजनीति से लेकर ग्रीन पीस और पेटा से लेकर मेनका गांधी की संस्थाओं के तर्क-कुतर्क से ज्यादा देश के अन्नदाताओं की चिंता है। ग्रीन पीस, पेटा और मेनका गांधी की संस्थाएं बिहार को बंदरों और नीलगायों से मुक्त करें किसी और जंगल में ले जाएं, किसानों को इन पशुओं को मारना होता तो वे धार्मिक आस्था तोड़ सकते थे लेकिन वे नहीं तोड़ सकते। अंतत: सरकार को ही कुछ करना है, त्वरित कार्य करे। किसान हित यानी देश हित का सवाल है।

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