"काफी है " वफ़ा का मेरी अब और क्या हसीं इनाम मिले मुझको, जिन्दगी भर दगाबाजी का सिर पे एक इल्जाम काफी है. बनके दीवार दुनिया के निशाने खंजर से बचाया था, होंट सी के नाम को भी राजे दिल मे छुपाया था, उसी महबूब के हाथों यूं नामे-ऐ -बदनाम काफी है ... यादों मे जागकर जिनकी रात भर आँखों को जलाते थे , सोच कर पल पल उनकी बात होश तक भी गवाते थे , मुकाम-ऐ- मोह्हब्त मे मिली तन्हाई का एहसान काफी है…. कभी लम्बी लम्बी मुलाकतें, और सर्द वो चांदनी रातें, चाहत से भरे नगमे अब वो अफसाने अधुरें है , जीने को सिर्फ़ जहर –ऐ - जुदाई का ये भी अंजाम काफी है
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