तड़पने की दरखास्त"
कागज की सतह पर बैठ
लफ्जो ने जज्बात से
तड़पने की दरखास्त की है
विचलित मन ने बेबस हो
प्रतीक्षा की बिखरी
किरचों को समेट
बीते लम्हों से कुछ बात की है..
यादो के गलियारे से निकल
ख्वाइशों के अधूरे प्रतिबिम्बों ने
रुसवा हो उपहास की बरसात की है
धुली शाम के सौन्दर्य को
दरकिनार कर उड़ते धुल के
चंचल गुब्बार ने दायरों को लाँघ
दिन मे ही रात की है
Powered by Froala Editor
LEAVE A REPLY