खामोशी तेरे रुखसार की तेज़ाब बन मस्तिष्क पर झरने लगी जलने लगा धर्य का नभ मेरा और आश्वाशन की धरा गलने लगी तुमसे वियोग का घाव दिल में करुण चीत्कार अनंत करने लगा सम्भावनाये भी अब मिलन की आहत हुई और ज़ार ज़ार मरने लगी था पाप कोई उस जनम का या कर्म अभिशप्त हो फलिभुत हुआ अपेक्षा की कलंकित कोख में विमुखता की वेदना पलने लगी....
Powered by Froala Editor
LEAVE A REPLY