Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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सुर्ख हुए रेत के पाँव

 
        -शिवचरण सेन ‘‘शिवा’’ पूर्व दिशा से उगल रहा रवि मुख से ज्वाला सी जादुई किरणंे, मंत्र मुग्ध हो उड़ रहा झीलों/नदियों का खारा/मीठा निर्मल जल सुर्ख हुए रेत के पाँव ताक रहे क्षितिज की ओर अपनी एड़ी की फटी बिवाईयों के क्लांत मन से, स्वाहा कर रहे उन्मुक्त होकर हरी दूब/वृक्षों की पत्तियों के झुलसे चेहरे अपनी कोमलता को, वृक्ष अपनी नंगी देह के सिर पर आशाओं/आकांक्षाओं/अपेक्षाओं की गठरी लिए तपस्वी जैसे स्तब्ध खड़े हंै पंजों के बल और टपक रहे खारे जल बिम्ब आदमी की देह से।


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