Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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ये पाप मिटाने आ कान्हा

 

 

ये पाप मिटाने आ कान्हा।
संसार बचाने आ कान्हा।


 


तेरे दरश को कित कित घुँमु मै।
पत्थर को कितना चुमुँ मै।
हो चुकी परीक्षा बहुत मेरी।
अब दरश दिखाने आ कान्हा।

 




मुझसे ना दर्द सहन होगा।
ये जीवन नही वहन होगा।
मै तुझसे अरज लगाता हुँ।
मेरी बिगडी बनाने आ कान्हा।



 


मेरे पास नही मक्खन मेवा।
करता हुँ तेरी मन से सेवा।
मेरी रुखी सुखी रोटी का।
आ भोग लगाने आ कान्हा।



 


मक्खन की मटकी भुखी है।
गायोँ की छाती सूखी है।
ग्वालन बालन की मटकी से।
दहु छाछ चुराने आ कान्हा।



 


अर्जुन को ज्ञान दिया जैसे।
गीता को प्राण दिया जैसे।
अज्ञान की गहरी निदियाँ से।
दुनियाँ को जगाने आ कान्हा।

 




मीरा को बहुत रुलाय लिया।
राधा को बहुत सताय लिया।
जो प्रीत अधुरी छोडी है।
वही प्रीत निभाने आ कान्हा।

 

 

'शिव'

 

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