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नक्षत्रहीन समय में : अशोक वाजपेयी

 

नक्षत्रहीन समय में : अशोक वाजपेयी
श्री सुरेश कुमार मिश्रा,

 

 

 

अवसाद, प्रेम और उत्साह के सर्वाधिकार सुरक्षित रखने वाले वरिष्ठ हिंदी कवि अशोक वाजपेयी पिछले पचास वर्षों से कविता लिख रहे हैं। उनके अब तक 15 कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। अपनी सांस्कृतिक सक्रियता, आलोचनात्मक बेबाकपन और विचारोत्तेजक संपादन के कारण उनके भीतर का कवि पक्ष हमेशा अनदेखा हुआ है। कदाचित हिंदी में ऐसा ही कोई बिरला कवि होगा जो आसन्नप्रसवा माँ की सुंदरता पर कविता लिखकर आलोचना के शिखर पर चढ़ने का जोखिम उठाता हो! अशोक की कविता का संसार उच्छल ऐंद्रिकता, अशांत आध्यात्म, शब्द-विन्यास के चमत्कार से भरा पड़ा है। इसे समझने के लिए व्यक्ति का ज़िंदादिल होना अनिवार्य शर्त है। वे शोरगुल अथवा तुकांत वाली कविता से स्वयं को दूर रखते हैं। उनकी कविता तुक से अंत नहीं होती, बल्कि अंत तुक्के के साथ होता है। आज जहाँ साहित्य अपना बिछौना समेट रहा है, ऐसे समय में अशोक वाजपेयी जैसे कवि हमेशा कोई न कोई दरवाज़ा खोलने के प्रयास में रहते हैं, जहाँ उम्मीद कभी ख़त्म नहीं होती। अपनी उनके अनुसार-
“कविता एक मात्र दरवाज़ा नहीं हैःमनुष्य कई दरवाज़े बहुत पहले से बनाता-खोलता-खोजता रहा है। इधर लोग भी बढ़ गए हैं और दरवाज़े भी। कविता उन दरवाज़ों में से है जिनसे ज्यादा लोग आवाजाही नहीं करते। ऐसे बहुत-से दरवाज़े हैं जो रंगीन और आकर्षक हैं, जिनसे रंगीन सचाई में जाया जा सकता है और जिन्हें खोलने में कोई ख़ास कोशिश नहीं करनी पड़ती। कविता का दरवाज़ा खोलना आसान नहीं होताःउसमें कुछ आपकी कोशिश भी लगती है। ” (अशोक वाजपेयी द्वारा रचित कविता संग्रहः नक्षत्रहीन समय में, से उद्घृत )
हाल ही में उनकी राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली द्वारा एक कविता संग्रह प्रकाशित हुआ है, जिसका शीर्षक है- ‘नक्षत्रहीन समय में’। इस संग्रह में वे आज के दौर की हताशा, पराजय, सही समय पर सही बात न बोल सकने की विवशता और हर तरफ पसरी नाउम्मीदी के बावजूद सच के साथ खड़े रहने के बारे में अपनी भावाभिव्यक्ति कर रहे हैं। कवि स्वयं कहते हैं- “इससे पहले / कि मैं मानने पर विवश हो जाऊँ / कि उनका साथ न देकर मैंने ग़लती की / मुझे आवाज़ दो / कि मैं अपने सच पर अड़ा रहूँ, / कि अकेला पड़ जाऊँ पर डरूँ नहीं, / कि सभी साथ छोड़ दें पर घबराऊँ नहीं।“
‘नक्षत्रहीन समय में’ कविता संग्रह के आधार पर कवि के पिछले 50 वर्षों के कविता-यात्रा का लघु मूल्यांकन, कविता के मूल स्वर और सरोकार पर अड़े रहने का संक्षिप्त लेखा-जोखा है। उनके अनुसार आज समय की आपाधापी में आदमी इतना व्यस्त हो गया है कि उसके पास इतना समय नहीं कि वह प्रकृति की सुंदरता को जीवन के साथ संलग्न कर सके। वह तो होकर भी न होने की विवशता में जी रहा है। इसमें उसका क़सूर नहीं है। किंतु इस भागमदौड़ भरे जीवन के बाद क्या लेकर जायेंगे, इस पर विचार करने की आवश्यकता है। शुक्र मनाइए कि कवि ने कम-से-कम शब्दों को चुनने का समय निकाला है, अन्यथा यह दुनिया कितनी नीरस होती, इसका आभास कवि ही कर सकता है- “मैं सोच भी नहीं पाया / कि जल्दी से /कुछ तारे और नक्षत्र अपने झोले में भर सकता था / जहाँ मैंने शब्द भर लिये थे / यह तो ग़नीमत है / कि मैं जल्दी में भी कुछ शब्द तो ले आया /अन्यथा ख़ाली हाथ आता / और ख़ाली हाथ जाता।“
जैसे-जैसे समय बदल रहा है वैसे-वैसे मानव जीवन और उसका दृष्ठिकोण बदल रहा है। आज का माहौल दूषित हो गया है। एक समय ऐसा था जब हमारे बड़े-बूढ़े लोग हमें राजा-रानी, लकड़हारे, पंडित, तोता-मैना, कभी बंदर और मगरमच्छ की कहानियाँ सुनाया करते थे अब तो समाज में इतना कूड़ा-कबाड़ भर गया है कि इससे मन खिन्न हो उठता है। कवि वाजेपयी 'एक कहानी थी' कविता में कहते हैं- “एक कहानी थी / जो कहीं भी रहती थी, कहीं भी चली जाती थी /हवा की तरह। / उसमें कभी राजा-रानी होते थे, / कभी लकड़हारे और पंडित, / कभी तोता-मैना, कभी बंदर और मगरमच्छ, परियाँ और चुडैलें /कभी पेड़ और चिड़ियाँ, अपने घोंसलों और बच्चों के साथ। / हर समय की कहानी होती हैः / उसमें इतना कूड़ा-कबाड़, अँधेरे उजाले, / लोग और चीज़ें, विचारों के चिथड़े और / असमय मारे गए बच्चे आदि होते हैं / कि उसे बार-बार कहना पड़ता है।“
आज हम जो कुछ भी हैं, अपने बड़े-बुजुर्गों और उनके द्वारा दिये गए संस्कारों की वजह से हैं। उन्हें याद करना यानी उनके प्रेम, संस्कार, उच्छल भावों के प्रति समर्पण की भावना का प्रतीक है। कवि वाजेपयी की कई रचनाएँ उनके पुरखों की स्मृति के प्रति धन्यवाद ज्ञापन है। इसीलिए वे जब भी समय मिलता है, तब-तबह उन्हें याद करते हुए हमें यह सीख देते हैं कि पुरखों के प्रति हमारी भी कुछ ज़िम्मेदारी है। 'पुरखे पता नहीं कहाँ' कविता में कहते हैं- “पुरखे पता नहीं कहाँ होंगे- / किसी निर्भीष अरण्य में, / किस निरवधि प्रतीक्षा में, / किस लंबी नींद में, जिससे जँभाई लेकर उठने की जल्दी नहीं है, / किस घर में, जिसमें बिना दस्तक दिये प्रवेश किया जा सकता है, / किस मेज़ पर, जिस पर समय व्यंजनों की तरह /अनेक रूपों में सजा लगा है, / पुरखे पता नहीं कहाँ होंगे- / उन्हें इस कविता में पुकारता हूँ मानो कि अब भी मेरी आवाज़ उन तक पहुँच सकती है!“
निर्धनता, महँगाई, अन्याय, बेईमानी के बीच व्यक्ति का दुख, उसके माथे की शिकन को देखने या महसूस करने वाला नहीं है। आज मोहल्लों में मारो-काटो-पीटो के शोर-चीखों से अनजान हैं। औरतों और बच्चों की रोने की आवाज़ सुनाई नहीं दे रही है। कहीं-न-कहीं हमारे भीतर का आदमी खो गया है। यही कारण है कि हम चुप हैं और हमारे शब्द हमें छोड़कर जा रहे हैं। कवि वाजेपयी शब्द बहुत दूर हो गए हैं' कविता में कहते हैं- “हम दूर जाते आदमी को / उसके थैले में ठुँसे दुख को, उसके माथे की शिकनों को महसूस नहीं कर पाते। / हम मुहल्ले में हो रहे शोर को, / मारो-काटो-पीटो की चीख़ों को, /औरतों-बच्चों के रोने को /ठीक से सुन नहीं पाते।“
कभी-कभी कवि वाजपेयी को संदेह होता है कि आदमी जीने के लिए कमाता है या कमाने के लिए जीता है। कमाना और जीने में काफ़ी अंतर है। उसे हमेशा इस बात का ख्याल रखना चाहिए कि हम जो कर रहे हैं उसका परिणाम क्या होगा। हमारे आगे न जाने कितने लोग जीवन को बोझ समझकर उसके भार के नीचे दबकर मर गए। जीवन बोझ नहीं बल्कि खट्टी-मीठी यादों का सफ़र बनना चाहिए। किंतु कई लोग जीवन को सुनसान स्टेशन बना देते हैं और अंत में विचार करते हैं कि उन्हें यहीं पहुँचना था? कवि वाजेपयी 'आख़िरी स्टेशन' कविता में कहते हैं- “स्टेशन सूना हैः / एक चाय की दुकान, एक खजुहा कुत्ता, एक बूढ़ा भिखारी, / एक पीपल का पेड़ / और जल्दी से निकल गए यात्री। / अब जब यहाँ इस निपट सुनसान में आ ही गए हैं / तो यह सोचना बुरा नहीं है कि हमें यहीं आना था। / बहुत सारी जगहें हम बिना किसी ‘क्यों’ के आते-जाते ही हैं। “
उम्मीद एक ऐसी ऊर्जा है, जो आदमी को ज़िंदा रखती है। वह न हो तो जीवन नीरस लगता है। इसीलिए हमें कुछ-न-कुछ उम्मीदें अवश्य रखनी चाहिए। कोई समय अनुकूल या प्रतिकूल नहीं होता। वह तो हम पर निर्भर करता है। हमें चाहें तो समय को अपने अनुसार ढाल सकते हैं। कोशिश यही होनी चाहिए कि नाउम्मीदी से अपना दामन बचाकर रखें। कवि वाजेपयी 'नक्षत्रहीन समय में' कविता में कहते हैं- “ऐसा समय होता ही होगा / जिसका रंग साफ़ न हो / साफ़ रंगोंवाले समय / बेहतर होते हैं यह कौन कह सकता है! / हम तो अपने नक्षत्रहीन / बुझे तारों और बेसाफ़ रंगवाले समय में /कविता में बचे-खुचे रंग खोज रहे हैं।“
कवि वाजपेयी समय के साथ अपनी कविताओं में समसामयिकता को स्वर देते हुए नज़र आते हैं। वे आँख-कान मूँदकर रहने वाले कवि नहीं हैं। वे स्वयं को समाज का अभिन्न अंग मानते हैं इसीलिए समय—मय पर उसे अपनी कविता में उसे प्रथम प्राथमिकता देते हैं। सामान्य-सी लगने वाली बात उनकी कविता में चीख़ना आरंभ कर देती है। उनकी कविता 'हम वहीं हैं' उन लोगों से सवाल करती है, जो स्वयं को आदमी कहने का घमंड करते हैं- “हम वही हैं / जो बचपन में किसी चिड़िया के घोंसले में अचानक कुछ अंडे / मिल जाने पर उन्हें वहीं सहेजकर रख आए थे / अब हम हर शाम गाज़ा पट्टी की बमबारी में जलते-धुँधुवाते घर / ऐसे देखते रहते हैं जैसे वह क्रिकेट का मैच हो। / हम वही हैं /जो किसी को सड़क पर घिसटते देख उसे सहारा देकर। / किसी ठौर पर पहुँचा आते थे, अब हम रास्ते में कोई / घायल हो जाए दुर्घटना में तो गाड़ी थोड़ी धीमी कर / फिर हवा हो लेते हैं झंझट में पड़ने से बचकर। हम वही हैं / संसार भर इतना बदल गया है, न इसमें कुछ कर सकते हैः / सिर्फ़ हम वही हैं“
निराशा और हताशा के समय में कवि को हर तरफ धुंधलका सा दिखता है। उन लोगों के नाकारापन पर कवि ने तंज किया है जो परिवर्तन तो चाहते हैं, लेकिन उसके लिए सकारात्मक बातें करने के अलावा कुछ नहीं करते – “इस समय का रंग तय नहीं है / उसके सफ़ेद में इतना काला है / और उसके भूरे में इतना सफेद है / कि कुछ ठीक-ठीक देखा-समझा नहीं जा सकता / कुछ नहीं में हम / आराम से टहलते-सुस्ताते लोग हैं / जिनसे कुछ नहीं होने वाला।“
नक्षत्रहीन समय में कविता संग्रह में कवि की अधिकाधिक कविताएँ आम पाठक को सोचने-विचारने पर बाध्य करने वाली है। ऐसी ही एक सुंदर कविता है ‘विपर्यय‘. हालांकि यह शीर्षक ज्यादातर पाठकों को समझ में नहीं आती, बावजूद इसके कविता बड़ी दमदार है – “मैं उनसे कहना चाहता हूं / कि इस समय आपका चुप रहना ठीक नहीं / पर कहता हूं : / बहुत दिनों से आप इस तरफ आए नहीं / मैं उनसे कहना चाहता हूं / कि इस मुक़ाम पर हमारा हाथ पर हाथ धरे बैठे रहना / आत्मघातक होगा / पर कहता हूं / इन दिनों सुबह की सैर फ़ायदेमन्द होती है / मैं उनसे कहना चाहता हूं / कि हमको उनके लिए कुछ अड़ंगे तो खड़े करने चाहिए / पर कहता हूं : / आजकल सड़कों की हालत बड़ी खराब है / न मैं कह पाता हूं, न वे समझते हैं : / अपने-अपने शब्दों की कगार पर ठिठके हम खड़े हैं।”
इस कविता संग्रह में कवि वर्तमान सरकार की उस नारे की ओर भी ध्यान आकर्षित कर रहे हैं, जहाँ सरकार ‘अच्छे दिन आयेंगे’ का नारा दे रही है। कवि वाजेपयी इसी नारे के सकारात्मक दृष्टिकोण रखते हुए 'अच्छे दिन तब आएँगे' कविता में कहते हैं- “अच्छे दिन तब आएँगे / जब सड़कों पर पैदल लोगों की भीड़ होगी, / कारों का सीना-बसीना घमासान नहीं, / जब सर्जरी के बाद कई निस्सहाय औरतों की मृत्यु / और भरोसा करनेवाले देहातियों की आँखों की ज्योति ग़ायब नहीं होगी, / जब साध्वियाँ सद्भाव फैलाएँगी घृणा नहीं, / जब लड़कियाँ आधी रात भी शहरों में सुरक्षित चल-फिर सकेंगी, / जब वे कैसे कपड़े-लत्ते पहने इस पर सार्वजनिक सलाह / नहीं दी जाएगी... / जब सब कुछ खरीदने-बेचने की चीज़ नहीं हो जाएगा / और हम एक-दूसरे की चिंता करेंगे, मदद हर मोड़ पर / पेड़ की तरह मिलेगी; / अच्छे दिन आएँगे...अगर आए तो...“
निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि कवि वाजेपयी समय के साथ चलने वाले कवि हैं। अवसाद, प्रेम, उत्सव के कवि ने आज के समय की गंभीर चिंताओं की ओर भी दृष्टिपात किया है। उनकी कविताओं में राजनीति मूल्यों के पतन की चिंता है, तो महंगाई, गरीबी, वृद्धों के प्रति चेतना भी है। वे सांस्कृतिक मूल्यों के परिरक्षक तो रहे ही हैं, अपितु समाज में उठ रही नई समस्याओं का वहन करने के लिए अपनी लेखनी को उस सीमा तक तैयार करने की चेष्टा भी की है।

 

 

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