मेरे दादू इतिहास विषय पढ़ा रहे थे। पुराने समय में मंदिर, मस्जिद, कुंए व बावड़ी के निर्माण को काफी महत्व दिया जाता था। दो दिन पूर्व ही घर आए लोगों से पुष्पा ने मंदिर निर्माण व सामाजिक दायित्व की बातें सुनी थीं। मन पवित्र भावना से पुलक उठा। योजनाएं, कार्य और प्रयास में सभी व्यस्त थे। माॅर्निगं वाॅक पर एक दिन मिसेज़ जोशी से कविता बोली-‘‘और सुनाइये ,क्या चल रहा है। क्या बात है, आज तो सैकेट्री और अध्यक्ष साथ-साथ घूम रहे हैं।’’
हमारे घूमने की कम्पनी तो बहुत पहले से बनी हुई थी। खैर!
मिसेज़ जोशी-‘‘क्या कहें पैसे लेते वक्त तो सबसे मांगने चले आए अब कोई हाथ नहीं डाल रहा। मंदिर में गेट लगा दिए मगर कोई बंद नहीं करता। निर्माण कार्य के बाद बची रेत व मलवा सब नालियों में पड़ा है इसमें लोगों को परेशानी हो रही है।’’
‘‘देखिए, कमेटी इसमें क्या करे? लोगों को सिविक्स सेंस ही नहीं है।’’
गरमागरमी बढ़ती गई, दोषारोपण लगते रहे। भगवान तो वही थे अंदर भी और बाहर भी। बदली थी तो भावनाएं जो आस्था जोड़ने आईं थीं मगर खण्ड-खण्ड हो गई। इतने में किसी के मुंह से निकला-‘‘भगवान के लिए अब बंद करो ये सब।’’
हां भगवान के लिए ही तो शुरू किया था ये, अब उसके लिए ही बंद करो। बेचारा भगवान क्या करे, क्या न करे ?
श्रीमती रचना गौड़ ‘भारती’
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