Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
Administrator

ट्रांजक्शन पीरियड

 

दोपहर से रात आठ बजे तक की कोचिंग के बाद मीरां ड्राइव कर थकी मांदी घर पहुंचती। पहुंचते-पहुंचते नौ पर घड़ी का कांटा आ जाता। थोड़ा फ्रैश होकर खाना खा, वो पढ़ने बैठ जाती। तरह-तरह के कोर्स, फार्म, एक्ज़ाम के भंवर से निकलने का एक ही रास्ता था-मेहनत। उसकी मेहनत हर दिन नया रूप लाती। इधर मम्मी थीं कि सामाजिक चक्रव्यूह में जकड़ी हर वक्त शादी करने के लिए ही कहती रहतीं। यूं तो मीरां व उसकी मम्मी में काफी दोस्ताना था, मगर आज जेनरेशन गैप की बेड़ियों से दोनों का दम घुटने लगा था। इकलौती संतान को सदा ये परवरिश दी गई कि लड़का औरलड़की क्या होता है, सब बराबर हैं। आजकल सब अधिकार एक है। खैर! मीरां के लिए पांव पर खड़े रहने के लिए कॅरियर की मारामारी और बदलती दिनचर्या से,उलझती जिन्दगी सुबह शाम कोहराम का सबब बनी थी। मीरां को रात के सन्नाटे में पढ़ना अधिक भाता। रात को तीन बजे सोती और सुबह नौ बजे उठती। सुबह-सुबह कामवाली, दूधवाला, कचरेवाला सभी का आना और यही समय उसकी मम्मी के टाॅयलेट का होता। मम्मी चाहतीं मीरां इस समय उठकर एक फर्माबदार बेटी का फर्ज़ निभाए , इन व्यवस्थाओं में मम्मी का हाथ बंटाए।मन के किसी कोने में बेटी होने का डर भी तो है, आखिर दूसरे घर जाना है। घर का काम सीखना सिखाना भी इसी उम्र में होता है। मगर स्वास्थ्य की दृष्टि से उसके सोने के आठ घण्टे पूरे नहीं होते। मम्मी क्यों उसमें लड़की, लड़के दोनों का रूप देखना चाहतीं हैं। पापा भी रात को जल्दी सोने के पीछे लगे रहते हैं। जल्दी सो जाओ, सुबह जल्दी उठ के पढ़ना। मीरां एक दिन शीशे के सामने खड़ी थी काफी देर के बाद मम्मी ने पूछा-‘‘मीरां क्या देख रही है?’’ ठण्डी सांस भरकर बोली- ‘‘कुछ नहीं अपने आप को पहचान रही हंू। मैं क्या करूं अच्छी बेटी बन घर के कामों को देखूं या लड़को की तरह अपनी पोजिशन व पाॅवर का ख्याल करूं। सोचती हूं, आज मैं क्या हूं? एक अच्छी बेटी, एक अच्छा बेटा या गृहकलह का कारण।’’ बाहरी जीवन पाने के लिए कुछ समय तक हर लड़की कोघरेलू जीवन त्यागना पड़ता है, यह मेरे पेरेन्ट्स क्यों नहीं समझते।कब खत्म होगा ये ट्रांजक्शन पीरियड।

 

 

 

श्रीमती रचना गौड़ ‘भारती’

Powered by Froala Editor

LEAVE A REPLY
हर उत्सव के अवसर पर उपयुक्त रचनाएँ