Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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प्रेम

 

जाने मन के गहरे सागर में
कौन ऐसे चला जा रहा |
जैसे मेरे खोखले से आधारों को
आधारमय बनाता चला जा रहा

अनन्य पलों के घरोंदो में
स्वयं विश्वस्त मै निस्सार सी
भीगी स्वयं ही प्रेम आनंद में
जैसे भीगे मोती सीप में,

उसके अमूल्य संचित प्रेम में
कोमल से मेरे ओष्ठो को
बिना स्पर्श चुम्बित करता
बिना ही मेरे समीप आये
करता मेरा आलिंगन
ऐसा मेरा प्रेमी पंकज
भीगा जा रहा पंक में हरदम

मै कोमल सी टूटी जा रही
हर पल छ्न छ्न भीगी जा रही
स्याही के अतुल सोख सी
बाती सी मै सिची जा रही
चलती अनंत आलोकित डगर को
पग पग मन से करती ठीठोली,

चंचल मेरी पल पल संचित
कौन कहे ये क्या है उलझन
प्रेम है या मै हुई बावरिया
प्रहर है या बिछी ओस है
सहर है कोसो दूर तक
फैला प्रेम का निर्मल आँचल,

मेरा मन अब चाहे पाना
फिर से अच्युत मेरा योवन
इसे कहू मै दीवानापन
या कहू इक निर्झर जीवन
जाने मन के गहरे सागर में
कौन ऐसे चला जा रहा |

Swati Sharma

 

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