भारतीय अर्थव्यवस्था गांव की अर्थव्यवस्था है। भारत की सारी आर्थिक ताकत कृषि व पषुपालन पर टीकी है। संेसेक्स उपर नीचे होने का प्रभाव उतना नहीं पड़ता होगा जितना इस बात का जरूर पड़ता है कि गाय ने आज दूध दिया या नहीं दिया। इस बात का आज भी प्रभाव पड़ता है कि बरसात अगर अच्छी हुई तो दाम सस्ते हो जाएंगे और ये सारे संेंसेक्स व सूचकांक भारत की इसी ग्रामीण जमीन के धरातल पर टीके हैं जहां हल चलाकर देष का किसान देष देष के भविष्य व वर्तमान की ईबारत लिखता है। महात्मा गांधी ने बरसो पहले कहा था कि प्रत्येक गांव स्वावलंबी बने और अपने स्तर पर मजबूत हो तो पूरा भारत की आर्थिक ताकत बन जाएगा। गांधी का सपना था कि देष इतनी बड़ी आर्थिक व लोकतांत्रिक ताकत बने कि वह अपने आप को विष्व की रक्षा के लिए समर्पित कर सके। इसलिए इस देष की केन्द्रीय सत्ता जब भी कोई निर्णय लेती है तो उसको अंत में बैठे हुए उस आदमी की तरफ देखना ही होगा कि उस लास्ट खड़े व्यक्ति को कितना फायदा होगा और अगर वह अंतिम स्तर का व्यक्ति पेरषानी में है तो इसका मतजब केन्द्रीय सत्ता में बैठे लोग देष की नब्ज को पहचान नहीं पा रहे हैंै।
आज भारत में नोटबंदी को लेकर काफी बवाल मचा हुआ है। माननीय प्रधानमंत्री ने एक झटके में देष की 86 प्रतिषत मुद्रा को बंद कर दिया। प्रधानमंत्री जी की सोच पर कोई सवाल ही नहीं है कि जिस उद्देष्य से यह नोटबंदी की गई है वे पवित्र हैं लेकिन क्या इस बड़े आर्थिक निर्णय से पहले भारतीय अर्थव्यवस्था के आधार बिंदु गांवों की तरफ देखा गया है कि इस निर्णय से वर्तमान समय में देष की ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा। क्या भारत के प्रत्येक गांव तक बैंकिंग सुविधा सुलभ हो सकी है। क्या आजादी के 70 साल बाद हम यह विष्वास के साथ कह सकते हैं कि देष के करीब साढे छः लाख गांव आज आत्मनिर्भर है। क्या भारतीय अर्थव्यवस्था का यह बिंदु गौर करने लायक नहीं है कि पशुपालन पर निर्भर करोड़ों लोगों पर इस निर्णय का क्या फर्क पड़ेगा। उन करोड़ो लोगों को यह फैसला कितना प्रभावित करेगा जो रोज आस पास के शहरों मे जाकर दैनिक मजदूरी के सहारे अपना घर चलाते हैंे। उन दिहाड़ी के मजदूरों में चूल्हा कैसे चलेगा जिनका जीवन रोज कुआॅं खोद कर पानी पीने के जैसी है। एक सौ बीस करोड़ की आबादी वाले इस विष्व के सबसे बड़े लोकतंत्र में आज भी गिनती के 20 ही शहर हैं जिनमें मेट्रो कल्चर का बोलबाला है और आज दिनांक तक उन 20 शहरों की एटीएम की लाईन भी छोटी नहीं हो पा रही है तो हम देष के लाखों गांवों की कल्पना कर सकते हैं कि वहां क्या हालात होंगे। आज प्रत्येक गांव में बैंक नहीं है बल्कि कईं गांवों को मिलाकर उन पर एक बैंक स्थापित किया गया है और जो लोग मीलों चलकर अपने बैंक तक पहुॅंचते हैं तो उनको ये जबाब मिलता है कि बैंक की चेस्ट में पैसा नहीं है तो ऐसे में यह लोकतांत्रिक सोच आनी वाजिब है कि उन करोड़ों लोगों पर क्या बीत रही होगी। ऐसे में देष के मुखिया का अचानक लिया गया निर्णय मन में कईं सवाल पैदा करता है। आज जिस कैषलेस इकाॅनोमी की बात हो रही है वह इस बड़ी आबादी वाले देष में कितनी सार्थक और सत्य साबित होगी इसकी कोई कल्पना तक नहीं है। जिन देषों ने इस कैषलेस इकाॅनोमी को अपनाया है क्या वहां आज भ्रष्टाचार नहीं है। क्या उन देषों का अध्ययन किया गया है जहां पलास्टिक मनी का प्रचलन है और उन देषों की सांस्कृतिक व क्षेत्रीय विषालता और के साथ सांस्कृतिक विविधता का अध्ययन करने के बाद यह सोचा गया कि भारतीय परिस्थितियों से उसका कितना मेल है और फिर यह निर्णय लिया गया है। आज देष के सामने अचानक एक आर्थिक संकट के हालात पैदा हो गए हैं। कहावत सुनी थी कि थके धन दिवाला निकलना। कहीं ये इस कहावत को सत्य करने वाले हालात तो नहीं है। यह कहा जा रहा है कि जो धन बैंकों में जमा हो रहा है वह काला है या बचत का धन यह समझ में नहीं आ रहा है। प्रत्येक व्यक्ति जो लाईन में खड़े होकर अपने खातों में पैसा जमा करवा रहा है वह क्या काला धन जमा करवा रहा है या वह अपनी बचत का धन जमा करवा रहा है। मुझे याद है जब पिछले दषक में विष्वव्यापी मंदी थी और जर्मनी जैसी अर्थव्यवस्था के पांव उखड़ गए थे और अमेरिका जैसे मजबूत अर्थव्यवस्था कोे भी झटके लगे और कईं बड़ी बैंके बंद हो गई उस समय में यह कहा गया था कि भारत पर उस विष्वव्यापी मंदी का असर इसलिए नहीं पड़ा क्योंकि देष के लोगों की बचत की आदत है और छोटी छोटी बचतों ने देष को उस बड़े झटकेे से बचाया था। वह जो छुपा धन था वो उस समय भारतीय अर्थवयवस्था की नींव बना था जिसको इस देष की जनता ने छोटी छोटी बचतों के नाम पर अपने पास रख छोड़ा था। आज वह बचत निकल कर सामने आ गई है। जब बचत के रूप में वो पैसे आमजन के पास थे तो उसका आधार मजबूत था पर आज उसको मजबूरन वो नोट अपने बैंकों में जमा करवाने पड़े वो अपने आप को गरीब महसूस कर रहा है। पुरानी कहावत है कि धन अंटे और विघा कंठे। मतलब धन वह है जो आपकी अंटी में है और विद्या वह है जो आपके कंठ में है। यह कहावत आज झूठी पड़ती नजर आ रही है क्योंकि धन अंटी मंे रहा नहीं वह जो पलास्टिक मनी में तब्दील हो ऐसे प्रयास किए जा रहे हैं और ऐसे में भारत में पारम्परिक सोच का आमजन अपने आप को गरीब महसूस कर रहा है।
एक बात और यहां गौर करने की है कि बार बार नोटों के लेनदेन को लेकर वित मंत्रालय की रोज के नियम बदलने की घोषणा भी यह बता रही है कि कितना अध्ययन इस निर्णय को लेेने से पहले किया गया है। कोलकत्ता हाईकोर्ट इस पर सीधी टिप्पणी कर चुका है और भारत की सर्वोच्च अदालत ने भी इस व्यवस्था को लेकर कईं बाते कही है। कोई भी बड़ा फैसला बिना तैयारी के लेना क्या परिणाम देता है वह वर्तमान हालातों से समझा जा सकता है। अगर सब बातों पर गौर करके फैसला लिया जाता तो शायद हालात कुछ और होते। खैर अब जो निर्णय ले लिया गया है उसको कैसे बेहतर तरीके से अंतिम स्थिति तक पहुॅंचाया जा सकता है इसके प्रयास ही निर्णय की खुबसुरती बढ़ा सकते है।
नोटबंदी का सीधा व सटीक फायदा यह जरूर हुआ है कि जो नकली नोट थे और जिन्होंने इस देष की अर्थव्यस्था को सीधा नुकसान पहुॅंचाया था वे जरूर बंद हो गए और एक बड़ा झटका नकली नोटों को बनाने वाले को जरूर लगा है और इस नकली नोटों के कारण जो अराजकता और आतंक फैलाया जाता था उस पर जरूर अंकुष लगा है। पर इसके साथ ही यह प्रष्न जरूर मन में आता है कि वर्तमान में जो करेंसी बनाई गई है वो क्या ऐसी बनाई गई है जिसको नकली बनाना अब संभव नहीं है। इस निर्णय से हवाला का कारोबार करने वालों को भी झटका लगा है और उनका ये काम अब बंद सा हो गया है। अब इतने दिनों बाद यह सोचने का समय तो जरूर है कि इस निर्णय से क्या फायदे हुए हैं और क्या नुकसान। आज विपक्ष विरोध कर रहा है और सत्तापक्ष अपने निर्णय के सही होने के तर्क दे रहा है। यह लोकतंत्र की संस्थाओं का हिस्सा है कि विरोध व समर्थन होता रहता है। हम विष्व के महान लोकतंत्र का हिस्सा है इसलिए हमारा प्रत्येक निर्णय अंततः जनता की अदालत मंे ही जाता है और जनता ही अपने वोटतंत्र से लोकतंत्र को गढती है। यह तो आने वाला समय ही बनाएगा कि यह निर्णय कितना लोकतांत्रिक मिजाज का था और कितना सटीक परंतु यह अवष्य है कि इस निर्णय से देष की अर्थव्यवस्था ही नहीं आम जनजीवन को बड़े स्तर पर प्रभावित किया है।
श्याम नारायण रंगा ‘अभिमन्यु’
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