भुवन भारती
(कोरोना काल में बहुतों ने स्वजनों को खोया है। किसी अपने को खोने का दर्द बयां करती यह कहानी ऐसे तमाम लोगों को समर्पित है।)
मेरे भुवन,
तुमसे क्या कहूँ, कैसे कहूँ, किन शब्दों में कहूँ ? तुम मुझसे इतना दूर चले गए हो कि मेरी आवाज भी तुम तक नहीं पंहुच सकती। तुम मुझे इतनी जल्द अपनी बंधन से मुक्त कर दोगे, कभी नहीं सोच पायी थी, सपने में भी नहीं। मन कुछ सहेजना चाहता है, संजोना चाहता है, छलछलाती आंखों के बीच ढूंढना चाहता है। कैसे चुपचाप यादों को सहलाने तुम मेरे नजदीक आकर दस्तक दे जाते हो। यादों के शांत , स्थिर जल में प्रस्तर का टुकड़ा क्यों डाल रहे हो ? काल इतना क्रूर होगा, पहले किस्से कहानियों में पढ़ा करती थी पर सच बनकर जब समक्ष आया तो पल भर में पूरी दुनिया उजड़ गयी।
तुमसे जिस दिन बंधी, उसी दिन से मैंने अपना सब कुछ खो दिया। एक पुत्री मरी तब कहीं एक पत्नी ने जन्म लिया। मेरा जो कुछ भी था, उसे भूलकर एवं खोकर हर उस चीज को अपना समझने लगी, जिसे तुम अपना समझते थे। मैंने कभी भी तुम्हारी बातों को काटने की कोशिश नहीं किया। तुमसे क्या जुड़ी, तुम्हारी हर चीज मुझे मेरी लगने लगी। चाहे वह रिश्ते हों अथवा सामान। तुम्हारी मीठी कड़वी यादों से भी मैंने जान पहचान बना ली। कभी तुमसे चाहकर भी लड़ नहीं पायी क्योंकि तुमसे जन्म जन्मांतर का रिश्ता जो हो गया था। पिछले जन्म के बारे में तो कुछ पता नहीं, पर भगवान से विनती है कि अगले जन्म में तुम मुझे फिर मिलना और तबतक साथ निभाना जबतक मैं जिंदा रहूं । इस बार के जैसा नहीं कि मंझधार में छोड़ कर चल दिए। जीवन की डगर तेरे बिन बहुत कठिन जान पड़ती है। कभी खुद को संभालती हूं, कभी बच्चों को संभालती हूं। तुमने स्त्रीत्व को कितना समझा एवं जाना, पता नहीं, पर एक बात कहूं, जिस दिन मेरी गोद में सपना आयी और माँ बनी, उस दिन मेरा स्त्रीत्व करवट लेकर एक नया जन्म लिया - माँ के रूप में। जब तक जिंदा रहूंगी, कोशिश करूंगी की बच्चों को तुम्हारी कमी महसूस न हो। माँ के साथ पिता का रूप गढ़ना भी अति कष्टकारी है। पल पल रोती हूं, पर बच्चों के सामने हंसती रहती हूं कि वो मुस्कुराते रहें। सपना तो बड़ी हो गयी है, बहुत कुछ समझने लगी है, कभी पीछे से आकर तुम्हारे जैसा प्यार भरी बाहों में भरकर दुलार करने लगती है। पर छोटी बिटिया सलोनी तो बहुत छोटी है। कभी कभी पापा पापा बोलकर तुम्हें खोजने लगती है। उस समय कलेजा कटने फटने लगता है, कहाँ से तुम्हें ढूंढ कर लाऊँ। मैं उसका ध्यान भटका कर कहती हूँ - "देखो आसमान में। तुम्हारे पापा तारा बन गए हैं। वहीं से देख रहे हैं।" वह खुश हो जाती है। तारों को इशारे से पास बुलाती है। कभी रोटी का टुकड़ा हांथ में लेकर कहती है - आओ न पापा, मेरे हांथों से खा लो न।
मैं अंदर से रोते हुए उसे मुस्कुराकर कहती हूं - जब तुम कल सो रही थी, तब वो आकर रोटी खा गए थे। फिर रात में आएंगे, और तुम्हारे हांथों की रोटी खा जाएंगे।
वह प्रायः हांथ में रोटी का टुकड़ा लेकर सोती है। मैं क्या बताऊँ, कैसे बताऊं कि तुम तो अब इतनी दूर चले गए कि लौट ही नहीं सकते। बस एक निवेदन है, कभी सपने में सपना और सलोनी को समझाकर चले जाना, मुझे ज्यादा तंग नहीं किया करे। अब बच्चों पर कभी भी हांथ नहीं उठाती हूं। पहले जब कभी हांथ उठा लेती थी, तुम बच्चों को अपने गोद में उठाकर मुझे डांटने लगते थे। मैं गुस्साकर कहती थी - "बच्चों को बिगाड़ रहे हो।"
अब यह सोचकर हांथ नहीं उठाती कि बच्चों को कौन गोद में उठाकर मुझे डांट लगाएगा। याद है तुम्हें, जब सपना ने एक बार तुम्हारी जेब से कुछ रूपये निकाल लिए थे और बड़ा सा कैडबरीज बार लेकर आयी थी। पूछताछ के बाद, मैंने एक तमाचा जड़ दिया था, पर तुम उसे डांटने के बजाए प्यार करने लगे थे। तब उसने रोकर तुम्हारे कंधे पर आंसू की बूंदें गिराते हुए कहा था - "गलती हो गयी पापा, अब नहीं करूंगी। जरूरत होगा तो मांग लूंगी।"
अब तो मेरा गुस्सा कहां चला गया, पता ही नहीं। एकदम गूंगी बहरी हो गयी हूँ। लोगों की बातों को सुनती ज्यादा हूँ और जवाब देने की कोशिश कम करती हूँ। कहते हैं, प्यार भरी आवाज यदि दिल की गहराई से लगाओ, तो आवाज उस तक अवश्य पंहुचती है। आज मेरी आवाज तुम तक अवश्य पंहुचेगी। बहुत कुछ कहना है, बहुत कुछ सुनना है, साॅरी डियर, सुनना नहीं, सिर्फ कहना है। तुम इतनी दूर से कुछ बोलोगे तो कैसे तुम्हारी आवाज मुझ तक पंहुचेगी ?
मुझे याद है, शादी के बाद का पहले दिन की वो पहली सुरमई शाम । अपने मायके को छोड़ने की टीस और आँखों में जागते सोते देखा अनगिनत सुनहले भविष्य की रूप रेखा के बीच वर्तमान में दिल में अठखेलियाँ खेलती अनकही उल्लास मिश्रित सुख दुःख की आहट पल पल मुझे बेचैन कर रही थी, विचलित कर रही थी। तुम्हारे साथ सीढ़ियाँ चढ़कर ज्योंहि घर के प्रांगण में दो चार कदम चली थी कि मोनी भाभी तेज कदमों से आकर हम दोनों का हांथ प्यार से पकड़कर बाहर में रखे दीवान पलंग पर बिठाकर बोली - "अरे मेरे देवर जी, आज पहले फैसला करना है कि तुम दोनों में से कौन पहले मुझे नेग देगा।"
वो एक बड़ी गहरी पीतल की पतीली में आधा पानी भरकर ले आयी फिर उसमें आधा लीटर दूध डालकर बोली - मैं एक सिक्का डालने वाली हूं। तुम दोनों को इसे खोजकर निकालना है, जो पहले निकालेगा, जीत उसकी। ऐसा मैं तीन बार करूंगी। जिसने दो बार जीता, वो अंतिम रूप से जीतेगा।
फिर उन्होंने सिक्का हांथ में लेकर पानी में डुबोकर छोड़ दिया और हम दोनों को खोजने बोली। हम दोनों ने हाँथ डालकर खोजना शुरू किया। फिर पानी के अंदर ही मोनी भाभी का हांथ मेरे हांथ में आया और सिक्का थमा गयी। मैंने हथेली उपर कर सिक्का दिखाया। जीत मेरी हुई। दूसरी बार वो सिक्का तुम्हारे हांथ में थमाकर तुम्हें जीत दिलायी। अब मुझे आनंद आने लगा। सब खूब ठठाकर हंसी ठिठोली कर रहे थे। मेरे मन का अवसाद मिट चला था। तीसरी बार हम दोनों खूब पानी में हांथ चला रहे थे, सिक्का मिल नहीं रहा था। अचानक उन्होंने दोनों की हथेलियां एक साथ मिलाकर सिक्का थमाया और दोनों की सम्मिलित हथेलियों को पानी से बाहर निकाला। फिर उन्होंने हम दोनों की बराबर जीत की घोषणा कर एक बात कही थी - "पति पत्नी में कभी हार जीत नहीं होती। दोंनो संपूरक होते हैं, एक दूसरे की हार जीत, सुख दुःख , पीड़ा और प्रसन्नता के बराबर साझीदार। ऐसे ही सदैव एक साथ रहना। कभी ऐसा भी वक्त आएगा जब दुनिया तुम दोनों के अलग विचार जानना चाहेगी पर अमूमन दोनों के सम्मिलित विचार, ब्यवहार एवं आचरण से ही दोनों की प्रतिष्ठा बढ़ती है। दोनों एक दूसरे के लिए जिंदगी बनो। और यह तभी होगा कि जब एक दूसरे को लगेगा कि दूसरा है तो जिंदगी है। हमारा आशीर्वाद सदैव तुम दोनों के साथ रहेगा। हाँ, मैं जिस नेग की बात कर रही थी, वो है प्यारी सी बिटिया। ईश्वर जल्द ही तुम्हें प्यारी सी बिटिया से नवाजे।"
क्या क्या याद करूं, भुवन ? अब तो यादों के सहारे ही जीना है। मेरी जिंदगी तो तुम थे, तुम से दिन की शुरूआत होती थी और तुम्हीं पर खत्म। एक दूसरे की परवाह करते करते कब एक दूसरे की जिंदगी बन गए कि पता ही नहीं चला। अब सोचती हूं कि क्यों तुम्हारे बिन यह जिंदगी सूनी लग रही है ?
आज अचानक एक बात और याद आ रही है, जब तुम नन्हीं सी सपना से पहली बार मिले थे, उसको गोद में उठाकर नाचने लगे थे। तुम्हारी खुशी का कोई ठिकाना न था। तुम बोल पड़े थे - "मेरी मम्मी लौटकर आ गयी हैं, मैं बहुत प्यार करूंगा। मैं अपनी मम्मी को छोटी सी उम्र में ही खो दिया था। वो मुझे बहुत प्यार करती थी। पर मैं उन्हें वापस वैसा ही प्यार कर सकूं, वो वक्त आने के पहले ही वह चली गयी।"
ऐसा बोलते बोलते तुम फूट फूट कर रोने लगे थे। मैंने पहली बार तुम्हें फूट फूट कर रोते देखा था। मेरे कुरेदने पर तुम बोल उठे कि मम्मी की बहुत याद आ रही है। बाद में मैंने बहुत पूछा कि क्या बात है ? कौन सा दर्द लेकर बैठे हो, खुलकर बताओ। पर हर वक्त तुम टाल देते थे। वो दर्द तुमने कभी भी जाहिर नहीं होने दिया। उस पीड़ा को तुम अपने साथ ही लेकर चले गए। अधूरी कथा में अपार संभावनाओं की अनंत गाथा छुपी होती है। वो गाहे बगाहे टूट टूट कर सामने आती है। शायद वही पीड़ा तुम्हारे अंदर प्यार का वो सैलाब भर गयी थी, जो सबको दिखता था। कहते हैं, कुछ कुछ स्मृतियां अपने हिस्से का हिसाब मांगने बार बार आती हैं - आंसू के रूप में। वो केवल आंसू ही नहीं होते, बल्कि स्मृतिशेष की छाया का दर्द और कसक भी होते हैं।
जब दूसरी बार मैं माँ बनने वाली थी, तब तुम कहते थे - देखना भारती, सपना का भाई आकर मेरे सपनों को आकार देगा।
तुमने सोते जागते एक बेटे की कल्पना और चाहत पाल ली थी, पर दूसरी बिटिया का जन्म सुनकर सन्न हो गए थे। फिर धीरे धीरे संभले और छोटी बिटिया सलोनी को बहुत चाहने लगे। वह भले ही बेटा न हो, पर स्वभाव व नक्श में तुम्हारी कापी लगती है। तुम्हारे जैसा धीरे धीरे मुस्कुराना, बिंदास बोलना और बेधड़क अपनी बात रखना जानती है।
तुम्हारी चिता को जब बड़ी बिटिया सपना आग दे रही थी, तब रूंधे गले एवं डबडबायी आंखों से बुदबुदा रही थी - "तुम पापा कहा करते थे कि तुमने इतने कम उम्र में बहुत सारी जिम्मेदारियों को सफलतापूर्वक वहन किया यथा दादा दादी की एक बोली पर उनका काम कर देते थे, दोंनो बुआ की शादी में कोई मलाल नहीं रखा, दिल खोलकर खर्च किया। अपने तो छोड़ो चचेरे भाई बहनों से भी असीमित प्यार किया फिर हम दोंनो बेटियों और मम्मी की जिम्मेदारी कैसे भूल गए ? क्या बेटियों की जिम्मेदारी मम्मी को सौंप दिए ? तुमसे हम बहुत प्यार करते हैं, करते रहेंगे और एक वादा करके आज तुमसे अंतिम विदाई ले रही हूं, मैं मम्मी और छोटी को रोने नहीं दूंगी। जो तुम छोड़कर गए उसे मैं पूरा करूंगी।" फिर जब घर लौटकर आयी तब फफक फफक कर खूब रोयी।
पता है, तुम ईश्वर संग मुस्कुरा रहे होगे, खेल रहे होगे। तुम्हारी चिर परिचित मृदुल मुस्कान याद है, हमें। जब तुम दिल्ली में अस्पताल में कठिन दौर से गुजर रहे थे, उस समय मेरी हथेलियों को अपने हाथों में थामकर उसी मृदुल मुस्कान के साथ तुमने कहा था - "कुछ नहीं होगा हमको। बच्चे हमारी राह ताक रहे हैं। हमें उठना है, जीना है।" पर तुम यह कहते कहते कब गहरी नींद में सो गए । मैं किन हाथों से सपना और सलोनी के आंसू को अपने हथेलियों में छुपाऊंगी। आज मैं चाहकर भी अपने आँसू रोक नहीं पा रही, मेरे दामन में जो तुम अपने प्रीत स्वरूप सपना और सलोनी को छोड़कर गए हो, उसे किस तरह कैसे अकेले संभालूंगी, संवारूंगी, एक मुकाम पर पंहुचाऊंगी। उस मुकाम तक बच्चों को पंहुचाने में कितनी बार मरूंगी ? देह त्यागना को ही मरना नहीं कहते हैं। जो हर पल सिसकता है, रात में बिस्तर पर जाने के पहले हर बार रोता है, रोज सवेरे जब उठता है तो महसूस करता है कि जिंदगी अब अकेले ही काटनी है, उस अकेलेपन का सन्नाटा बार बार शरीर को मृत्यु के समान कष्ट देता है। देह त्यागना तो मोह से, कष्ट से, आवेग से, रिश्तों से, घर बार से, दुनिया से मुक्ति दे देता है। पर एक जीवित देह जब हर पल अपने जीवन से ज्यादा अपने बच्चों के जीवन के लिए जीता है, तब न जाने कितनी बार मरता है। जब लगने लगे कि जीवन को इसलिए जीना है कि जीना है, तब जीना भी बोझ लगने लगता है । मन से उमंग, देह से तरंग और पैरों से थिरकन ने तुम्हारे संग विदाई ले ली है। कुछ रिश्ते तो गलतफहमी पाल लिए फिर उन गलतफहमी का जवाब भी तैयार कर लिया और कह बैठते हैं कि दिल पर पत्थर रख कर अपने बच्चों के लिए जीना है। दिल तो क्या यह हाड़ मांस का शरीर ही पत्थर बन गया है। जिस दिन से माँ बनी, उसी दिन से बच्चों के सुनहरे भविष्य की रूप रेखा खींच ली। खुद के शरीर से दूसरा शरीर का निर्माण की प्रक्रिया औरत को कितनी बार मारती है, यह एक औरत ही ज्यादा समझ सकती है।
कुछ लोगों को "मैं अपने बच्चों संग कैसे जीवन बताऊंगी" से ज्यादा इस बात की फिक्र थी कि तुम्हारे नियोजक से तुम्हारे उत्तराधिकारियों को क्या मिलने वाला है अथवा तुम क्या विरासत में छोड़ गए हो। दुनिया बहुत रंग रंगीली है, भुवन। वैसी नहीं, जैसा हम सोचा करते थे। छोड़ो अब इन बातों में कुछ नहीं रखा है। जिस तरह तुम सब कुछ छोड़कर अनंत यात्रा पर चले गए, वैसे ही मैं भी एक दिन चली जाऊंगी। बात अनंत यात्रा की हो रही है न, यही तो सबकी आखिरी मंजिल है। इसी राह के सभी राही हैं। एक दुनिया बुनते बुनते दूसरी दुनिया की ओर जा रहे हैं। यही सनातन सत्य है। यही चिरंतन सत्य है। अस्त से अस्तित्व नहीं मिटता, वह उदय की ओर अग्रसर रहता है। तुमने तो भुवन भाष्कर की तरह भारती को उर्जा और उष्मा से परिपूर्ण कर दिया। उन्हीं उर्जा से मैं पल्लवित होकर अदम्य साहस पालती हूं। आने वाले जीवन की खाका भी बुनती जा रही हूं। प्यार को पाने से ज्यादा कठिन है प्यार को संभालकर रखना, संजोना और जीना। शायद इसी को जीवन कहते हैं। प्रेम तो हर ब्यक्ति में होता है, पर देख वही पाता है, जिसके अंदर कूट कूट कर प्रेम भरा हो और प्रेम बांट भी वही पाता है। तुम भुवन ऐसे ही थे। अजातशत्रु थे, तुम। तुम्हारे पास आने वाला व्यक्ति यह जरूर सोचता था कि तुम कभी भी उसका अपमान नहीं कर सकते। इसीलिए सब तुमसे प्यार बहुत करते थे। तुम्हारा रिश्ता हर किसी से मजबूत होकर उभरता था। चाहे वह रिश्तेदार हों, दोस्त हों अथवा सहकारी संगी कर्मी साथी, सबके बीच अत्यंत लोकप्रिय थे। बस कमी तुममें एक ही थी, कभी भी किसी के गलत बात को गलत नहीं कह पाते थे, विरोध नहीं करते थे। समाज में मासूमियत क्यों जिंदा है भुवन, इसीलिए न कि बेवकूफ बनाने वाले भूखों न मर जाएं। वो अपनी ऐशोआराम की जिंदगी दूसरों के मासूमियत के सहारे जुटाते हैं। किसी को आपके आंसुओं से फर्क नहीं पड़ता। किसी को आपके दुःख से कोई मतलब नहीं। किसी को आपका दर्द भी नहीं दिखता। बस दिखता है तो सिर्फ एक चीज - आपने क्या क्या नहीं किया है। उसका हिसाब लोग सुनाने लगेंगे। यही दुनिया है, भुवन। और इसी दुनिया में जीना है। डंके की चोट पर जीना है। कब तक मैं रोऊंगी, रोने से नसीब नहीं बदलते। सपना और सलोनी के सपनों को उड़ान देने के लिए मुझे तो हंसना पड़ेगा, खुलकर जीना पड़ेगा, थोड़ा स्वार्थी भी बनना पड़ेगा। बच्चों के बचपन छिन न जाएं, भविष्य अधूरे न रह जाएं, उतना तो स्वार्थ चलेगा न। तुम्हारी कंपनी ने मुझे जीने का सहारा दे दिया है, उनका एहसान मैं आजीवन न भूल पाऊंगी। कभी घर का काम, कभी ऑफिस का काम, बच्चों की पढ़ाई से अकेले जूझने का साहस धीरे धीरे जुटाने लगी हूं। जीवन को कठिन और सरल बनाना तो हमारे हांथों में है, ऐसा तुम कहा करते थे, भुवन। बस उसी सरलता से यह सच स्वीकार कर ली हूं कि तुम्हारी अनुपस्थिति से कभी भी अपने बच्चों पर असर न पड़े। उन्हें वो हर खुशी दे सकूं, जो उन्हें मिलना चाहिए।
मानसिक संवाद तो रात के साए में तुमसे अभी भी करती हूं, जबतक जिंदा हूं, करती रहूंगी। बिना भूले तुम्हें याद करती हूं, करती रहूंगी। तुम तो मेरे पोर पोर में समाए हो, शायद इसी को प्रेम कहते हैं। जो भूल जाए, उसे प्रेम नहीं कहते। मेरी दुनिया तुम्हारे प्यार से बनी, अब उसी प्यार की स्मृतिशेष के ताकत के बल पर मैं जीवन का जंग लड़ुंगी। मैंने अपनी अंतस की पीड़ा किसी को नहीं बताई क्योंकि मेरा मानना है कि व्यक्ति में इतनी ताकत हमेशा होनी चाहिए कि अपने दुख, अपने संघर्षों से अकेले जूझ सकें। जो पीड़ा में भी मुस्कुराना सीख लिया, उसने तो जीवन की आधी जंग जीत ली। मैंने विरले ही किसी के सामने हांथ फैलाया है, मेरी ईश्वर से विनती है कि मुझे इतना आंतरिक बल और संबल दे कि किसी के पास हांथ फैलाना नहीं पड़े।
आज तुम्हारी पहली पुण्य तिथि पर इस पत्र को मैं गंगा मैया की बहती धारा में समर्पित कर रही हूं कि यह बहते बहते सागर में जा मिले और अनंत गगन की ओर देखते हुए तुमसे रुबरू कह सके।
तुम्हारी भारती
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प्रेषक
प्रेषक
श्याम सुन्दर मोदी
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