अहसास :दोगुनी खुशियों का .
दुल्हन सा सजा यह शहर ,
याद दिलाता है अँधेरे ग़मों की,
जो किसी कृशकाय किसान के
‘दिवाली ‘ के रोज़ के घर में
घिर आते हैं खूब.
रोशनी की लड़ियों की प्रतिस्पर्धा ,
में हो आता है ख़याल ,
आठ सौ साल पुराने लद्दाख के
उस गाँव का जो सौर बिजली से ,
होगा लकदक ,इस दीवाली पहली बार .
काजू कतली के बढ़ते दामों के बीच ,
मैं मन मार लेती हूँ ,
अपनी पसंदीदा मिठाई के लिए
पर हो आती है याद ,
सिर्फ मिड डे मील के लिए
स्कूल आने वाले बच्चों की .
तोहफों के खूबसूरत रंग देखकर ,
खो जाती हूँ ,भीग जाती हूँ ,
तिरंगे में लिपटे ‘गौरव’ और देशप्रेम की साक्षात
‘देह’ की बात सोचकर .
दिवाली पार्टियों के बीच वो अदद छवि ,
जहां एक बच्ची ,
अपने ही घर में पोषक भोजन को तरसती है .
वो खुशियाँ जो सिमटी हैं खुद पर आकर ,
जो दूर हैं अपने जैसे औरों के सच से .
या फिर बंद किये हैं आँखें अपनी .
जब कर्णभेदी आकाश को चीरते
आतिशबाजियों के शोर को भाँपती हूँ ,
तो याद आता है ,
चिरकालीन ‘स्वरों और शब्दों से अनभिज्ञ
तमाम लोगों का संसार .
जब सुलगते देखती हूँ ,
पटाखों के ढेरों को ,
तो उसके पीछे की ,
‘मेहनत’ की चिंगारी
खूब याद हो आती है .
जब होड़ विचित्र देखती हूँ ,
उत्सव के प्रदर्शन की ,
याद हो आते हैं ,
पुराने नगमे ,
जहां विस्तृत परिवारों के’ साथ ‘
का नाम था त्यौहार .
जब सजे कपड़ों के मौल देखती हूँ ,
तो अरे ,
सैनिटरी नैपकिन के अभाव में औरतें ,
और दिल्ली की कडकडाती सर्दी में
सड़कों पर दम तोड़ते बाशिंदे .
आइये इस दिवाली ,
मैं और आप
त्यौहार के अलबेले चटकीले रंगों के बीच ,
देखें ,सुनें और महसूसें ,
वो जो इर्द गिर्द है ,पर
अनदेखा है ,अनछुआ है ,
अहसास अपनेपन का ,
समाज ,देश और विडम्बनाओं का .
खुशियों की साम्यता से ,
क्या दोगुनी न हो जाएँगी
मेरी,आपकी ...खुशियाँ ??
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