Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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अहसास :दोगुनी खुशियों का

 

अहसास :दोगुनी खुशियों का .


दुल्हन सा सजा यह  शहर , 

याद दिलाता है अँधेरे ग़मों की,

जो किसी कृशकाय किसान के 

‘दिवाली ‘ के रोज़ के घर में 

घिर आते हैं खूब.



रोशनी की लड़ियों की प्रतिस्पर्धा ,

में हो आता है ख़याल ,

आठ सौ साल पुराने लद्दाख के

उस गाँव का जो सौर बिजली से ,

होगा लकदक ,इस दीवाली पहली बार .



काजू कतली के बढ़ते दामों के बीच ,

मैं मन मार लेती हूँ ,

अपनी पसंदीदा मिठाई के लिए 

पर हो आती है याद ,

सिर्फ मिड डे मील के लिए 

स्कूल आने वाले बच्चों की .


तोहफों के खूबसूरत रंग देखकर ,

खो जाती हूँ ,भीग जाती हूँ ,

तिरंगे में लिपटे ‘गौरव’ और देशप्रेम की साक्षात 

‘देह’ की बात सोचकर .



दिवाली पार्टियों के बीच वो अदद छवि ,

जहां एक बच्ची ,

अपने ही घर में पोषक भोजन को तरसती है .



वो खुशियाँ जो सिमटी हैं खुद पर आकर ,

जो दूर हैं अपने जैसे औरों के सच से . 

या फिर बंद किये हैं आँखें अपनी .



जब कर्णभेदी आकाश को चीरते 

आतिशबाजियों के शोर को भाँपती हूँ ,

तो याद आता है ,

चिरकालीन ‘स्वरों और शब्दों से अनभिज्ञ 

तमाम लोगों का संसार .



जब सुलगते देखती हूँ ,

पटाखों के ढेरों को ,

तो उसके पीछे की ,

‘मेहनत’ की चिंगारी 

खूब याद हो आती है .


जब होड़ विचित्र देखती हूँ ,

उत्सव के प्रदर्शन की ,

याद हो आते हैं ,

पुराने नगमे ,

जहां विस्तृत परिवारों के’ साथ ‘ 

का नाम था त्यौहार .



जब सजे कपड़ों के मौल देखती हूँ ,

तो अरे ,

सैनिटरी नैपकिन के अभाव में औरतें ,

और दिल्ली की कडकडाती सर्दी में 

सड़कों पर दम तोड़ते बाशिंदे .



आइये इस दिवाली ,

मैं और आप 

त्यौहार के अलबेले चटकीले रंगों के बीच ,


देखें ,सुनें और महसूसें ,

वो जो इर्द गिर्द है ,पर 

अनदेखा है ,अनछुआ है , 



अहसास अपनेपन का ,

समाज ,देश और विडम्बनाओं का .

खुशियों की साम्यता से ,

क्या दोगुनी न हो जाएँगी 

मेरी,आपकी ...खुशियाँ ??

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