बदलाव , लोग ,टेलीविज़न और स्त्री पुरुष सरोकार .
कहते हैं सिनेमा और टेलीविज़न हमारे समाज का दर्पण होते हैं .होने भी चाहिए . लेकिन व्यवसाय ,धन और पॉपुलैरिटी के तराजू पर अगर इन्हें रखा जाए तो अक्सर यहीं पर नवीन प्रयोग असफल हो जाते हैं या फिर वे भी मन मारके पुराने ढर्रे पर चलने लगते हैं टी आर पी के लिए या आर्ट या फेस्टिवल फिल्मों के नाम पर संकीर्ण कर दिए जाते हैं और इनसे जुड़े कलाकार और गैर कलाकार हतोत्साहित .
इस दिशा में एक शो आया करता है हिंदी टेलीविज़न पर ,'कुछ रंग प्यार के ऐसे भी ' . जिसके प्रैक्टिकल, वास्तविक होने और नॉन मेलोड्रामाटिक होने पर यह अच्छा लगा था .
अच्छा लगा था जब किरदार आस पास के से लगे थे . जब एक व्यक्ति अपने प्यार का इज़हार अपने बचपन के कड़वे सच को नायिका से बांटकर करता है जिससे वह उसके अतीत के रूप में ,उसके संघर्षपूर्ण बचपन से एक सफल बिजनेसमैन तक के सफ़र को समझ सके . जिसमे लड़की आत्मसम्मानी आजकल की पढ़ी लिखी , डॉक्टर थी . जो घर को आर्थिक रूप से भी संभालती थी .
पर जब कुछ महीनों के अंतराल के बाद इसे देखती हूँ तो ये कि न सिर्फ यह आम सास बहू कथा बन गया बल्कि एक निहायती सेंसिटिव मुद्दे - इनफर्टिलिटी को बेहद ही अपमानजनक रूप में ट्रीट करता लग रहा है . सवाल यह है कि क्या एक लड़का अपनी 'ईश्वरी ' माँ के प्रति श्रद्धा के सामने यह अनदेखा कर सकता है कि उसकी पत्नी अपने माँ नही बन पाने के आघात को ठीक से संभाल भी नही पायी कि सासू माँ के टिपिकल भारतीय वंशधर रुपी पोते के सपने को पाने के लिए एक मिशन पर लगा दी जाती है .
समाजशास्त्रीय विश्लेषण बाद में करते हैं पहले यह कि क्यों टेलीविज़न सिवाय तमन्ना ,सिया के राम , दहलीज़... के बदलाव और नए आत्मविश्वासी किरदार और कहानी नही ज़ारी रख सकता .
क्यों यह सो कॉल्ड सफल व्यक्ति इज़्ज़त , मान और सही गलत को समझते हुए अपनी माँ के अजीब ब्लैकमेल्स को हैंडल नही कर सकता ! क्यों कोई रिश्तेदार जिसका आप पर भावनात्मक क़र्ज़ हो , जो अत्यधिक बद्तमीज़ , लालची और नीचतापूर्ण हो कि आपकी पत्नी और उसके परिवार का भरसक अपमान होते देख भी आप चुप रहे .
क्या गरीबी से लड़कर ऊपर उठते उठते आप माँ बेटे एक दूसरे के अलावा दुनिया में बाकी लोगों ,रिश्तों के प्रति मान्य अमान्य व्यवहारों की रवायतें भी भूल गए ? कैसे एक माँ अपने बेटे को किसी की जान बचाने के लिए रात भर हॉस्पिटल में देखकर असुरक्षित महसूस करे ? जबकि आम तौर पर एक माँ को गर्व से भर उठना चाहिए कि उसने कितने मानवीय संस्कार दिए हैं !!
सबसे बड़ी बात . 2016 और 17 में क्या हम औरत / 27 साल की शादीशुदा डॉक्टर लड़की की पहचान सिर्फ माँ के रूप में ही करेंगे .उसकी अपनी कोई पहचान नहीं ? क्यों उससे नही पूछा गया कि वह इतनी जल्दी फिर से फर्टिलिटी ट्रीटमेंट करवाना चाहती है या नही और अपने माँ नही बन सकने की बात से कितनी तक़लीफ़ में है ? वो इंसान है पहले न कि स्त्री जिसका जन्म सिर्फ बच्चा पैदा करने को हुआ है !
और समाजशास्त्रीय रूप से देखें तो क्यों एक माँ खासकर के भारत में बेटों की माँ ये भूल जाती हैं कि पत्नी और माँ अलग अलग रिश्ते होते हैं . और दोनों एक दूसरे की जगह नही ले सकते .जैसे पति और पिता क्योंकि जीवन में हर रिश्ता या व्यक्ति एक मकसद से होता है .माता पिता हमारे संरक्षक और पोषक होते हैं जबकि संभवतः हमारे मित्र और जीवनसाथी हमें दूसरा और जनेरेशन के अनुरूप साथ और नजरिया दे सकते हैं पर ये दोनों पक्ष ही सम्पूर्णता देते हैं फिर उनमें प्रतिस्पर्धा क्यों ?
बेटियों की माओं से पूछिये कैसे दिल पर पत्थर रखकर अनजाने घर में गाते बजाते उन्हें भेजती हैं जहाँ उनका कोई कण्ट्रोल नही होता . उन्हें तो कभी असुरक्षा नही होती !! क्यों क्या उनकी नाज़ों से पली लाड़ली नही है वह .जैसे बेटों की माओं आप के होते हैं 'लाल '!! फिर क्यों अपने बेटों को माँ वर्सेस पत्नी के दुविधा चक्र में डालती हैं . परवरिश आपकी ही उसे सिखाएगी रिश्तों में बैलेंस रखना . क्योंकि शादी के बाद जिस प्रकार आप बहू से उम्मीद करती हैं कि वे आपको माँ माने वैसे ही वो लड़की भी अपने जीवनसाथी से अपने माता पिता का सम्मान और केअर चाहेगी न !
स्त्री पुरुष की समानता ही तो है यह अगर हम 2017 में वीमेन एम्पावरमेंट का गान गाते हैं तो . पर क्यों हिंदी टेलीविज़न अभी इतना साहसी नही हो पा रहा है . ? अंधविश्वासी कहानियों , नाग नागिनों और राक्षसों ,मक्खियों का माफ़ कीजिये कोई ज्ञान नही है इस लेखिका को .
नवीनता बनाम ऊलज़लूल सोच .
खैर चर्चा में आगे बढ़ें तो ... बेटों को भी चाहिए कि बाहर दहाड़ने वाले बेटे अगर घर पर अपनी पत्नी के सही होने पर भी उसके साथ खड़े नही होंगे तो फिर प्यार ,रोमांस और कसमें वादे सब व्यर्थ !! ज़रूरी नही कि किसी के साथ खड़ा होने के लिए किसी के खिलाफ हुआ जाए या कोई हंगामा बरपाया जाए . उदाहरण थोडा आउट ऑफ़ सिन्स है पर गांधी अम्बेडकर कट्टर विरोधी होते हुए भी अपनी डिप्लोमेसी के दम पर कभी खिलाफत स्टाइल में ड्रामा नही किये !
आप अपनी माँ को समझते हो , हो सकता है आपकी कोशिशों से इस असुरक्षा से बाहर आ जाएँ और आपकी पत्नी जो अब आपके घर का हिस्सा है को , आदर्श रूप में बेटी सा न सही बहू के वाज़िब सम्मान तो दें ! !
और बेटियों , माना ससुराल में आप मायके जैसे धड़धड़ाते कुछ भी नही बोल सकतीं पर कम से कम शिक्षित हों तो और भी गलत होने पर चुप न रहे . चाहे वो गलत , आपके पति के कज़िन भाई द्वारा हो रहा हो , जो उनकी माँ को भी बहुत प्रिय है , पर निहायत ही आवारा है और आप से भी बदतमीज़ी कर चुका था ,शादी के पहले पर आपने यह बात न पहले बताई किसीको न अब और अब जब वह आपकी बहन की ज़िन्दगी भी बर्बाद कर रहा है तब तक देर हो चुकी होगी !!
समस्या की जडें फैलने से पहले नहीं काबू तो पैनी नज़र तो रखनी ही चाहिए !
और दिमाग का प्रयोग करें , पति के साथ शांति से बात करें ,खासकर लव मैरिज हो तो और ज़रूरी व जायज़ है . नही तो आप खुद समझदार हैं , संस्कारी बहू बनने के नाम पर अपने स्व और अपने सही गलत के जजमेंटल पॉवर को कुर्बान न करें .
और हाँ ,बेटियों , आपके पहले परिवार का सम्मान आपका सम्मान है , अगर आपके ये नए रिश्ते उसे नही निभा सकते तो आपकी बारी है , अपने पत्नी से पहले बेटी होने के , प्यार दुलार और लाड के फ़र्ज़ को निभाने की . फिर से ध्यान रखिये खिलाफत करे बिना हो सके तो वो सही नहीं तो कर्तव्यपथ पर सब ज़रूरी !
खैर उम्मीद ही की जा सकती है कि ऐसा इस धारावाहिक में और असल समाज में हो पायेगा . पर यह शुरू घर से होगा .यह निश्चित है . बच्चों की बराबर परवरिश में एक से मूल्य जिनमें प्रगतिशीलता और खुलापन , मानवीयता और बैलेंसिंग करने के गुण आएं !
जब मेरा तेरा से हम खुदको निकाल पाएंगे तब ही तो भविष्योन्मुख हो सकेंगे !
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