ज़िन्दगी का शतरंज : संजू और सूरमा
कभी कभी ज़िन्दगी में हम इस कदर बेबस महसूस करते हैं कि मत पूछिये . आप सिर्फ चीख सकते हैं .चिल्ला सकते हैं .अपने वालोँ या निर्जीव वस्तुओं पर अपना गुस्सा निकाल सकते हैं . कुछ सही या गलत नही होता .बस होता है .
कभी कभी आपके सर पर ज़िन्दगी एक ज़ोरदार हथौड़ा मारती है जो आपके वजूद को हिला देता है .
कभी आपने अपना सर्वश्रेष्ठ दिया होता है ,पर आपको निकृष्ट भी नही मिल पाता .
कभी कभी आप अपना सर्वश्रेष्ठ देना चाहते हैं , पर ज़िन्दगी जैसी अतरंगी मित्र के होते आप के सोचने से क्या हो जाएगा भला ! वह है बॉस ! वह जो कहेगी वह होगा . जैसे चाहेगी वैसे होगा .
पर सिर्फ एक चीज़ निश्चित है , जो हम कम उम्र और कच्ची अक्ल के युवाओं के समझ नही आती . कि पांच या दस या पंद्रह सालों के बाद हम सब बड़े गर्व से बताते हैं , इस सबसे लड़कर हम चट्टान बने हैं . आने वाली हर दस गुना बड़ी विपत्ति के लिए फौलादी !
लेकिन इन जबरदस्त अप्स एंड डाउन्स के बीच आत्मविश्वास की जो साइन वेव (त्रिज्यामिति) होती है न वो तक़लीफ़देह होती है .
कभी कभी एक पल से कोई पूरी तरह बदल जाता है .तो कभी सालों के संघर्ष के बाद . इतना कि वह भी खुद को न पहचाने . पर आत्मा के सफ़र की कहानी इन सालों में इतनी आसान नही होती .
कभी कभी हमारे भीतर ही वह ताक़त छुपी होती है पर ज़िन्दगी की ठुकाई के बाद ही हमें वो याद आती है . 'पिघली हुई जंजीरों से और टूटी हुई शमशीरों से ही तो फिर मैदान फ़तेह होते हैं ' !!
कभी कभी हमारे पास सब कुछ होते हुए भी हम उसकी तलाश में होते हैं , जो स्थायी है . या फिर हमें ऐसा लगता है कि वही सब है .पर नश्वर इस संसार की रेस में क्या शाश्वत हैं ? और जो हम चाह रहे होते हैं , वो शायद
सूरमा के संदीप सिंह और संजू के संजय दत्त की बात कर रही हूँ यहाँ मैं .
कमर के नीचे से अपाहिज हो चुके हॉकी खिलाड़ी संदीप की हृदयविदारक चीख और लाचारी के बीच कुछ दलजीत दोसंझ के बेदाग अभिनय , संदीप की सच्ची कहानी . और कुछ मेरी अपनी व्यक्तिगत जीवन की तक़लीफों , असफलताओं और रुकावटों के नतीजतन मेरी आँखें शाद अली निर्देशित फ़िल्म 'सूरमा' के दौरान कई दफे बह चलतीं हैं . क्योंकि संदीप की कहानी मेरी ,आपकी या किसी उस आम इंसान की है जो सूरमा बनकर बाहर निकला है ,ज़िन्दगी के मैदान से . या बिखरे हुए पलों में एक नए कल का अथक इंतज़ार संजो रहा है .
और दूसरी फ़िल्म संजू , संजय दत्त के जीवन पर बात कर रही है . काफी आर्टिकल्स ,समीक्षाएं लिखी जा चुकी हैं . पर यहाँ मैं बात करना चाहती हूँ , उस कठिन दार्शनिक प्रक्रिया की जिसे ट्रांसफॉर्मेशन कहते हैं .
जहाँ आप इम्पर्फेक्ट हैं , आप नैतिक रूप से सही नही हैं , जहाँ आप को एक लड़की के रूप में मैं कभी इज्जत नही दे सकती अगर तीन सौ लडकियां और वैश्याएँ आपके लिए आंकड़ा मात्र हैं .वहीँ , आप मेरे रोल मॉडल न हों , पर आप प्रेरणा ज़रूर बन सकते हैं .
क्योंकि कठिन लड़ाइयाँ लड़ने वाले इम्पर्फेक्ट हो सकते हैं , पर हम उनकी लड़ाइयों के लिए उन्हें नकार नही सकते ! हम सीख सकते हैं उनसे जिन्होंने गलतियों से सीख उन्हें पटखनी दी .
ड्रग्स ,शराब और अय्याशी के चंगुल में घुसने से लेकर उससे बाहर निकलने की कठिन प्रक्रिया ने मुझे याद दिलाया . ज़िन्दगी में कष्ट के रूप बदलते हैं , पर सब की सब कठिन ही होते हैं . मसलन मेरी माँ कहती हैं कि एक बार शादी कर लो तब समझेगा कि ज़िन्दगी की कोई भी पढाई , प्रतियोगिता या चुनौती उससे आसान है . तो भई औरत के लिए घर बार की ज़िम्मेदारियाँ हों या फिर एक बड़े खानदानी आदमी की असुरक्षाएं ,गलत संगत या गलत आदतें . चुनौतियां कोई छोटी बड़ी नही होतीं . बस हम उन्हें अलग अलग समझते हैं .
तो ड्रग , अंडरवर्ल्ड डॉन या अपने भीतर के डरों ,असुरक्षाओं और कमज़ोरियों की लंबी फेहरिस्त से लड़ते हुए एक आदमी की कहानी ये बताती है कि बदलावों के कठिन दौर आपको तोड़ने और वापस पीछे खींचने की भरसक कोशिश करते हैं पर अगर आप उन ताक़तों को धकेल कर बाहर आ गए तो आप जंगों को जीतने वाले हैं .आज नही तो कल . नही तो परसों.
आप का परिवार , कुछ नायाब और सच्चे दोस्त और लोग अगर आपको साथ में मिलें .तब भले ही यह सफ़र आपका हो ,जो आपही को तय करना है , आप ठिठक जाइये पर रुकिए मत ,मुड़िए मत . उनके साथ रो लीजिये . खीझ लीजिये . पर अंततः कमज़ोरियों से लड़िये .
ट्रांसफॉर्म होने की यह प्रक्रिया आसान तो नही होती है .
ज़िन्दगी में मेरा हमेशा से मानना है , अनुभव और उससे होने वाला ट्रांसफॉर्मेशन ही अंतिम और स्थायी उपलब्धि है . आई.आई.टी. , डॉक्टर , कलेक्टर , उद्यमी , अरबपति या मिस वर्ल्ड या सुपरस्टार . सब बाहर के नाम हैं . मन और आत्मा जो घिसते हैं . जो हीरा बनकर बाहर निकलते हैं . वही अंतिम सत्य है .
खैर वापस आते हैं सूरमा के संदीप पर . एक अल्हड लक्ष्य के खिलाड़ी से भारतीय हॉकी टीम को सम्मान दिलाने वाले फ्लिकर सिंह तक .एक आशिक़ से देश के लिए खेलने वाले खिलाड़ी तक .
ज़िन्दगी के रेलमपेल के बीच बिना किसी गलती के आपकी ज़िंदगी आपको झटका दे तो. आप क्या करेंगे ?
इस फ़िल्म से मैंने यह भी सीखा कि आपके हिसाब से ज़िन्दगी नही चलती है . अतः ज़्यादा दूर के प्लान नही बनाने चाहिये . चाहे आप ऐसा आशावादिता के कारण करते हों या कठिनाइयों से भागने के टूल के तौर पर .
यह भी कि खुद से पूछना ज़रूरी है कि आखिर हमारा मुख्य लक्ष्य क्या है ? हम आखिर सच में क्या चाहते हैं . साथ ही इन्हीं मुश्किलों में हम सच में समझ पाते हैं कि हमारी ताक़तें और कमज़ोरियाँ क्या हैं . कहीं ऐसा तो नही है , जिसका हम पीछा कर रहे थे , हमारे ज़िन्दगी के पाठ उससे अलग हों . तो ज़िन्दगी कहे , अरे मूर्ख , अब तो तुझे थप्पड़ मारना होगा ,तभी तू सीखेगा कि तेरे लिए तो ये ज़रूरी है ,वह नही !
यही संदीप के साथ हुआ ,जब अद्भुत ड्रैग फ्लिक के लिए प्रसिद्ध इस उभरते हॉकी प्लेयर को अनायास दुर्घटनावश चली गोली के बाद ; ज़िन्दगी बदलके रख देने वाले झंझावातों के बाद एक नया जीवन , एक नया लक्ष्य और एक नया नज़रिया मिला .
खैर अगर आप एक आम इंसान की ख़ास कहानी देखना चाहते हैं , तो सूरमा देख डालिये .और अगर आप एक सुपरस्टार की आम आदमी सी खामियों से भरी ज़िन्दगी से सीखना चाहते हैं तो वो भी बढ़िया है . जहाँ से सीखें , वही अच्छा .
और शंकर महादेवन - गुलज़ार के सूरमा एंथम और सुखविंदर कौर के' हर मैदान फ़तेह 'से जीवन की जंग की जीत की तैयारी कीजिये !
2.
सफ़र और दो सिरफ़िरे : क़रीब क़रीब सिंगल .
अतीत ,वर्तमान ,असुरक्षाओं और डरों का ही नाम तो है ज़िन्दगी .क्योंकि ये सबकी ज़िन्दगी में होता है . कभी हमारे पास सब कुछ होते हुए भी हम उन तमाम क्यों ,कैसे पर ही अटके रह जाते हैं .और हमारी असुरक्षाएं और डर हमें कम्फर्ट ज़ोन से बाहर निकलने ही नही देते . हमें लगता है ,सब परफेक्ट है . शायद हो भी पर कभी कभी अनायास इस ज़ोन से बाहर धकेल दिए जाने पर जो होता है , आश्चर्यजनक रूप से खूबसूरत हो सकता है . सफर तब असल शुरू होता है .
अजीब या विचित्र इस नए बाहरी सफर की कहानी है ‘ करीब करीब सिंगल ‘ . जया शशिधरन याने दक्षिण भारतीय फिल्मों की प्रसिद्द अभिनेत्री पार्वती और योगी याने इरफ़ान खान की .
2017 में प्रदर्शित इस फ़िल्म को तनूजा चंद्रा ने निर्देशित किया है .रितेश बत्रा की लंचबॉक्स के अलावा अभी तक किसी हिंदी फ़िल्म ने ज़मीनी सादगी और ताज़गी के साथ दो लोगों के अनूठे सफ़र को इतनी गहराई ,सच्चाई के साथ और गैर फ़िल्मीकृत रूप में नही पेश किया था .शायद .
जया एक आधुनिक ,आत्मनिर्भर 35 साल की कामकाजी महिला है. जो अपने काम और निजी आदतों दोनों में ज़िम्मेदारियों और परफेक्शन की मिसाल है . पर वह डेटिंग या किसी नए रिश्ते की तरफ देखने के बारे में नही सोचना चाहती .
या चाहती हो पर आगे बढ़ने में उसका अतीत याने उसका पति मानव जो अब नही रहा है , उसे जकड़ा हुआ हो . पर ये कहानी जया की उन अन्य बंदिशों की भी है ,जो परत दर परत खुलती जाती हैं जब ये दोनों अनजाने लोग इस सफ़र पर आगे बढ़ते जाते हैं .
यह योगी के भीतर छुपे भावों की बाहर आने की भी कहानी है . उसकी कविताओं की गहराइयों और व्यक्तित्व के अल्हड़पन , सरलता, जेंटलमैनली पक्ष से लेकर अतीत के पन्नों को कुरेदने और बिंदास ज़िन्दगी जीने के रंगों की भी .
कभी कभी हमें लगता है , पद, पैसा ,गाडी , बिज़नेस क्लास में ही ज़िन्दगी का सुख है . प्यार , लोग , रिश्ते और साथ के वो रूप जो खासकर हम पच्चीस छब्बीस साल के युवाओं को बड़े आकर्षित करते हैं , आगे चलकर उनके ही मायने बदल जाते हैं . भौतिक जगत की रेस में हम आज़ाद होने के बजाय और जकड़ते जाते हैं . आत्मा और दिल छटपटाता है .हम उसे हड़काकर चुप कर देते हैं .
फिर हमें अपनी पुरानी ज़िन्दगी की इतनी आदत हो चुकी होती है कि हम अगर उसके खिलाफ जाके कुछ करते हैं तो पैनिक करने लगते हैं . या हमें खुद पर , अपने नज़रिये और लोगों के प्रति अपने रुख पर एक नए दृष्टिकोण की कोई ज़रुरत ही महसूस नही होती .
ऐसे में यात्राओं और नए अनुभवों के ज़रिये कभी कभी हमारी हमारे खुद के उस वर्ज़न से मुलाक़ात होती है जिसे हम पीछे छोड़ आये थे .
फ़िल्म में जया अपनी दोस्त के कहने पर एक डेटिंग वेबसाइट के ज़रिये एक अल्हड , अक्खड़ और नाम के अनुरूप व्यक्तित्व वाले योगी से मिलती है . योगी एक बातूनी और बेपरवाह इंसान है . जो मिलते से ही शांत और अपने में सिमटी जया से अनौपचारिक हो जाता है . और फिर कहानी एकदम असल ज़िन्दगी सी अनिश्चित मोड़ों सी गुज़रती है .
और इन मोड़ों के बीच दबे जज़्बातों का उमड़ना , वो अनजाने जज़्बात जिन्हें जया और योगी खुद से भी बाँट नही रहे थे , उनका आप्लावित होना . बस यही है .
इस दार्शनिक पर बेहद मज़ेदार , और. बेहतरीन अदाकारी ,दृश्यों , स्क्रीनप्ले से सजी इस फ़िल्म ने मुझे एक गर्माहट का अहसास कराया .
जया के आखिरी कुछ दृश्य मुझे ‘क्वीन ‘ की रानी के आत्मविश्वास से दमकते चेहरे की याद दिलाते हैं . जब मेरी खुद से मुलाक़ात हो जाती है तो मैं भी ऐसा ही तो महसूस करती हूँ .
आज़ादी की उड़ान का रोमांच हमें हमारी असली ताक़त का अहसास करवाता है .
अगर हम हम अगर कहीं ठिठक गए हैं , कहीं निराश या बिखर गए हैं , या खोखली ज़िन्दगी जी रहे हैं तो क्या पता ऐसे किसी सफ़र के बाद ज़िन्दगी बदलने वाली हो . नज़रअंदाज़ मत कर दीजियेगा . बेशकीमती इस ज़िन्दगी को आइये इसके असली रूप में जिया जाए .
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