लायन : सरू से शेरू तक का सफ़र
जिस तेज़ी से भारत सरसराता बढ़ रहा है ,उससे आने वाले कुछ तीस सालों में एक अनुमान के अनुसार यह जनसंख्या में भी सबसे अव्वल आने वाला है . पर उतनी ही तेज़ी से शासन ,प्रशासन और अवाम के सामने मुश्किलें बढ़ती जानी हैं अगर हम समाज के तौर पर अपना दिमाग थोडा प्रगतिशील ,संवेदनापरक और विकास की समस्याओं के समाधान का खुद को हिस्सा न बना सके तो ...
ऑस्कर्स के लिए नामित फ़िल्म लायन इस एक बहुत बड़ी चुनौती के एक तबके के एक किस्से को बयान करती है . बच्चे .हमारे बच्चे . वही जिनका दिवस बड़ी धूम धाम से 14 नवम्बर को हम मनाते हैं . कुछ 15 मिलियन बच्चे समूचे विश्व में गुमशुदा हैं . और मंडेला कहते हैं , हम अपने बच्चों की देखरेख कैसे करते हैं ,यह हमारे समाज और राष्ट्रीय मूल्यों का आइना होता है . अब आप ही सोच लीजिये !
लायन मध्यप्रदेश के पत्थर तोड़ने वाली माँ के शेरू नाम के बेटे की सच्ची कहानी का फ़िल्मी रूपांतरण है . फ़िल्म गुमशुदा बच्चों की ज़िन्दगी ,मानव तस्करी ,संभावित अपहरण ,रेलवे में सोने वाले लावारिस पर मासूम और मानवीय बच्चों , शिक्षा और स्कूल से कोसों दूर कोयला चुराने या छोटे मोटे काम करने वाले बच्चों , अच्छे खाने और कोल्डड्रिंक के लालच से बच्चों को आकृष्ट करने वाले मीठे ज़हरीले इंसान , अनाथालयों की दुर्दशाएं , अखबारों में आती रोज़ाना ख़बरों जहां इन सो कॉल्ड rehab की जगहों में हो रहे शोषण और दुर्व्यवहार पर नज़र डालती है .
और सबसे बढ़कर माँ ,अभिभावक और एडॉप्शन जैसे मानवीय और सामाजिक पहलू की व्यक्तिगत कहानी है लायन . हालांकि फ़िल्म मूलतः एक बच्चे ,युवा और एक ऑस्ट्रेलिया के कपल के इर्द गिर्द घूमती है पर यह उन तमाम मुद्दों को छू के जाती है ,जब आप बार बार यह सोचने को मजबूर हो जातें है कि आप अपने जीवन में तो कितने स्वार्थी और कूपमंडूक हैं .
मिलिए आप सू और जॉन से . देखिये निकोल किडमैन और देव पटेल के उस बेहद खूबसूरत ,मानवीय और गहन संवाद को . देखिये कि क्यों सरू और खुद को हार्म करने वाले एक troubled बच्चे manthosh को सू ने अपनाया .क्यों अंततः यह उन्हें एक आध्यात्मिक शक्ति का पर्याय लगता है जब ये दोनों बच्चे उनके पास होते हैं ! देखिये जो परवरिश ,जो आभार एक फॉस्टर मदर अपने सरू के लिए फील करती है . महसूसिये जब सरू से वे कहती हैं कि एक दिन वो ख़ुद अपनी कहानी ,अपना अतीत उसे बताएगा .
एक बच्चे को गोद लेना और उसे उसके अतीत से जोड़े रखना .उसकी याद दिलाना .उसकी संस्कृति और खानपान के साथ साथ उसे उसके नाम से भी जोड़े रखना माँ होने का सच्चा रूप है .जैविक हो या फोस्टर माँ , असुरक्षित कैसे हो सकती हैं .और यहां तो उनके पास तमाम वजहें हैं । सरू की जैविक माँ भी तो इतनी ही शेरदिल हैं कि अब सरू की दो दो माएँ हैं . सारा जहां उसका है अब . माँ ....!
सनी पवार जब नन्हे पर चतुर सरू के रूप में परदे पर रहते हैं ,वे आपको एक सुखद बचपन के आपके सौभाग्य पर गर्व करवाते हैं .क्योंकि वे और उनकी तक़लीफ़ बिना किसी ड्रामे के आपकी पलकों को भिगो देती हैं .फ़िल्म के अन्य ऐसे बच्चे भी जब एक मार्मिक कड़वी सी लोरी खुद ही गा के खुद ही सो जाते हैं ,तो आप सिहर जाते हो .
फ़िल्म में सिवाय सरू के लव इंटरेस्ट के सब कुछ सटीक,ज़रूरी और सही जगह पर लगता है . पहचान और भाई गुड्डु और माँ के फ्लॅशबैक्स ,धुंधली यादें और देव पटेल का उम्दा अभिनय ,फ़िल्म को मार्मिक , और सच्चा बनाता है ,सिनेमटिक दृष्टि से भी फ़िल्म बांधें रखती है . कैमरा सरू की आँखों से उसकी ज़िन्दगी की गलियों को खोजता लगता है .
नवाज़ुद्दीन और तनिष्ठा चटर्जी एक छोटे से रोल में भयभीत कर देते हैं . एडिटिंग भी सिवाय कुछ फ्लॅशबैक्स के फ़िल्म को कसी हुई बनाती है .अगर सरू की लव स्टोरी वाले पार्ट को हटा दिया जाता तो शायद एक बच्चे से काबिल युवा बनने के बाद के नार्मल जीवन के अन्य वास्तविक या फिक्शनल पहलुओं पर नज़र नही पड़ पाती .हालाँकि फ़िल्म थोड़ी और कम लंबी व कसी हो पाती .
इस फ़िल्म के सबसे अहम् संवाद में मुझे महसूस हुआ कि बच्चा अडॉप्ट करना एक डिवाइन एक्सपीरियंस हो सकता है . क्यों आखिर क्यों सरोगेसी ,आई.वी.ऍफ़ .और निःसंतानता का अभिशाप हम झेलें . क्यों .जब इतनी बड़ी दुनिया में इतने बच्चे एक परिवार के प्यार को तरसते हैं .क्यों भारत में एडॉप्शन रेट इतना कम है .क्यों हम इतने छोटे दिमाग वाले हैं जहां अपना ख़ून के ढर्रे पर चल रहे हैं .
कैसे एडॉप्शन के बाद बच्चे को उसकी सम्पूर्णता और स्वाभाविकता में अपनाने की ज़रुरत होती है .
और यह भी कि कि बच्चों की परवरिश ,देखभाल और उनकी तरक्की एक बेहद ज़िम्मेदारी और संवेदनशीलता से जुड़ा मानवीय मामला है . वो भी जो पैदा करके सड़क पर नाली में छोड़ जाते हैं ,और वो भी जो माँ की मज़बूरियों तले दब जाते हैं(थैंक्स माँ फ़िल्म ) या जहां औरत की अपनी ही कोख और अपने ही शरीर पर कोई काबू न होना उस बच्चे को उस प्यार से वंचित कर देता है .
कहो कि हम कुपोषित बच्चों, कुपोषित माओं और अनदेखे किये और ट्रैफिकिंग की शिकार इस नन्ही आबादी को आज़ादी कब देंगे ??
सरकारें , गैर सरकारी संगठन ,तमाम अमीर ,पढ़े लिखे वैल टू डू लोग क्या हम इस globalised world के सच्चे पैरोकार बनेंगे जहां हर ऐसा बच्चा हमारा हो सकता है .उसकी ज़िन्दगी को बेहतर बनाने और उसे आम बच्चों सी ज़िन्दगी देने और खुद उन खुशियों को समेटने का वो मौका जो वो हमारी ज़िन्दगी में लाएंगे ,क्या हम देना चाहते हैं ?
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