सालगिरह और कुछ सवाल.
कुछ नई उधेड़बुनें ,
कुछ नए नगमे या
सालों के शुष्क दरख्तों पर
कुछ नई बारिशों सा अहसास
या फिर नई गिरहों का बनना
क्या रंग लाएगा यह साल ,
सालगिरहें यही तो छोड़ जाती हैं
सवाल पीछे ,
क्या बयार बदलाव की ,
छू जाएगी मेरे तन को
मेरे मन के विंडचाइम्स को
करेगी झंकृत ,
क्या इस अक्टूबर की आश्चर्यजनक बारिशों
की तरह कुछ नया ,
कोई नया पाउंगी
कहीं नया बिचरूँगी
नंगे पाँव
बेरोक और बेखौफ
बिंदास बियाबानों में
जहां अंधेरा शिव सा हो
जिसे रोशनी की नहीं
ज़रूरत हो ,
जिसे ताक़त कुदरत और सृष्टि की
बनने बिगड़ने की कहानी से मिलती हो ,
जहां मैं हूँ और सिर्फ कुदरत और सृष्टि की वही कहानियां हों ,
जहां मुझे दुनियावी दौड़ कोई न बाँध सके ,
मैं उन पाग़ल यायावरों सी
उन हवा में सरसराते ऊंचे पेड़ों सी
हो जाउंगी मदमस्त
या ज़मीदोंज़ अपने पुराने अक्स को
कर पाउंगी ,
क्या सपनों की मेरी और
माँ पापा की अब होगी मंज़िल पूरी
या नई मंज़िलों की कशिश फिर उठेगी ,
इन बेमौसम बरसातों सी ,
या मेरे शहर की उफनती नदियों सी ,
टूटेंगे कितने सीमाओं के बाँध ,
कौन सी नई पटकथाओं का होगा आरम्भ ,
शुभाशीषों और मंत्रोच्चारों का सावन बरसेगा
और क्या नए सवालों की
यह रेल अपने फिलहाल के पड़ाव पर
पहुंच चिहुकेगी या
फिर ज़िन्दगी की तरह
अगले पड़ाव की तरफ
चल पड़ेगी
गले में कैमरा लटकाये
और चमकती उत्सुक आँखों के साथ .
Powered by Froala Editor
LEAVE A REPLY