ताकता बचपन .
अब वो नमी नहीं रही इन आँखों में
शायद दिल की कराह अब,
रिसती नही इनके ज़रिये
या कि सूख गए छोड़
पीछे अपने नमक और खून
क्यूँ कि अब कलियों बेतहाशा रौंदी जा रही हैं
क्यूंकि फूल हमारे जो कल
दे इसी बगिया को खुशबू अपनी
करते गुलज़ार ,वो हो रहे हैं तार तार
क्यूंकि हम सिर्फ गन्दी? और बेहद नीच
एक सोच के तले दफ़न हुए जा रहे हैं
या कि महफूज़ अपनी ही
नन्ही जानों को नही कर पा रहे हैं ..
या कि तमाशबीन बन बीन सिर्फ बजा रहे हैं
या कि नीतियों और रणनीतियों में पिसे
नग्न कुरूपतम मानसिकता को
अफ़सोस रुपी लिफाफा थमा
इतिश्री कर्त्तव्य की किये जा रहे हैं
कौन है वो सत्रह साल का जुवेनाइल
और कौन वो ढाई और पांच साल की मेरी क्यूट परियाँ
कौन है वो अखबार के आठवें पन्ने पर
महिला सशक्तिकरण के बीच खामोश सिसकियाँ सुनाता
सोलह साल का यौन शोषण का शिकार लडका
क्या और क्यों हैं
ये तक़लीफ़ में हैं पड़े हुए
कि हम जुवेनाइल की उम्र
अपराध की पाशविकता या
उसकी मानसिक परिपक्वता के
कुछ निर्णय कर ही नही पा रहे
कि रिमांड होम्स सुधारेंगे
इन्ही किशोर मनों को
क्या हम बच्चों को सुधारना चाहते हैं
या हम उन्हें सुधार के नाम पर
और भयावह अपराधियों की शक़ल
में चाहते हैं बदलना
या कि हम तह में मनोविज्ञान की जाएंगे
खोजेंगे तरीके नए जिनमें
हम दे पाएंगे हमारे सभी बच्चों को बराबर
हक़ की ज़िंदगी , इज़्ज़त ,
आज़ादी और सुरक्षा की
शिक्षा और प्यार से भरपूर
दरिंदगी से दूर
बसा पाएंगे एक दुनिया
ऐसी कि महफूज़ शब्द महज एक
धूल धूसरित रक्त रंजित
किताब न रह जाए ?
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