काश !
छीन ली वो दो गज़ ज़मीन ,
तुमने हमसे
और ले ली
जान , एक हम से की
और दे दिए जख्म
पहले से 'जख्मी' शरीरों पर .
तुम नही जानते होश
शराब की नही ,
तुम्हारी रफ़्तार की गिरफ्त में थे .
रफ़्तार , पैसे की , शोहरत की ,
राजनीति बनाम जागीरदारी बनाम धंधे की .
रफ़्तार , मेरा तेरा , छोटा बड़ा ,अमीर गरीब के
सदियों से चले आ रहे फासलों की .
पर सबसे बढ़कर , इंसान -इंसान के थोथले
रचे गढ़े फ़र्कों की .
जिसमें तुम भूल गए कि
ज़िन्दगी की जिन देनों का तुम्हारे
लिए कोई मोल नही ,
वह हमारे लिए सब कुछ था ....
घर ...!
एक नाईट शेल्टर ....जहाँ
मौसम की मार से बचने और
सर छुपाने को हम रहा करते थे .
तबाह कर दिया उसे तुमने .
और
छीन लिया वो 'घर ' हमारा !
काश ! तुम समझ पाते हमारा दर्द !
पर कैसे तुम्हारा 'नायक' तो करोड़ों कमाता
है परदे पर और तबाह करता है
इन जर्जर ज़िन्दगियों को .
और न्याय फिर खुद पर ही हँसता है
जब वह शान से आज़ाद हो जाता है .
शायद तुम भी हो जाओगे .
पर काश ! तुम समझ पाते !
कि इंसान इंसान के दिल में
कोई फर्क नही होता .
दर्द ,तक़लीफ़ ,आंसू और
तबाही का अहसास
वजह कोई भी हो
छलनी करता है .
और कई दफे जीने की वजहें भी
छीन ले जाता है .
काश !
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