Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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मैं क्यों लिखूं कोई कविता?

 

मैंने भी सोचा था कि एक कविता लिखूंगी
वो कहते हैं तुम्हारे शब्दों में कुछ तो बात है
पर क्या मेरे शब्द तुम्हारे नहीं
मैंने जब तुम्हें गुनगुनाया तो किसी ने नहीं सुना
फिर मैं क्यों लिखूं कोई कविता?
मैं क्या करूंगी बेआवाज़ नगमों का
उनको लगता है कि कविता बस
लिख लेने से लिख जाती है
सायों में जीना और सायों के लिए जीने में
बहुत फर्क होता है दोस्त
काला चश्मा पहनने से
मौसम सुहाना नहीं हो जाता
हर शब्द को कागज़ पर उतारने से पहले
उसके हर मायने को जीना पड़ता है
बड़ा ही नासाज़ होता है कविता लिखना
मुझे नहीं करना किसी के होंठों का महिमामंडन
मुझे तो मोटी पड़ गई चमड़ी के अंदर ख़त्म हो चुके
मांस के बारे में लिखना था
मैं कैसे करूँ शहर में बढ़ते चौराहों की बात
जब ज़िन्दगी के दुराहे ख़त्म ही नहीं होते
मैं कैसे लिखूं महलों में बसते शाही लोगों के किस्से
जबकि एक तबका तब से अब तक धूल ही खा रहा है
मैं कैसे करूँ फूलों की कोमलता का बखान
जब आदमी की स्थिति पत्थर से भी बदतर है
मैं कैसे लिखूं उनकी बंसी की धुन पर भजन
जब यहाँ भावों की अभिव्यक्ति पर भी जेल होती है
मैं कैसे करूँ देश की संविधान की वाहवाही
जब मेरे गाँव की औरतें आज भी दुनिया परदों से देखती हैं
मुझसे नहीं होता नए बन रहे सुपरमार्केटों का गुणगान
जब अनाज उगाने वाले बेमौत मर रहे हैं
अब दुनिया के लिए दुनिया से लड़ना बड़ा ही नीरस है
हर सांस मौत को जीना पड़ता है
हर बात मुट्ठी भींचकर सुननी पड़ती है
हर अहसास तिल-तिल कर ख़त्म होता जाता है
और फिर कहाँ कुछ रहा जाता है
कविता में लिखने के लिए
तो बस नहीं लिखूंगी मैं कोई कविता
बहुत अपशकुनों से भरे होंगे मेरे शब्द
उनको पढ़कर आप कहीं सच्चाई न जान जाएं
नहीं जी आप अपने कुएं में रहिए
आप कविताओं के लिए नहीं हैं
और कविताएँ भी आपके लिए नहीं है
वैसे भी उनके सवालों की कोई इति नहीं होगी
पर मेरे संयम का तो एक बाँध है न
उनके सभी सवालों के जवाब हैं मेरे पास
पर मेरे जवाबों की न तो
उन्हें कद्र है और न समझ
ये जो ऊपर-ऊपर से मेरे शब्दों की तारीफ़ करते हैं
इनकी गर्तों में बस अर्थ बसता है
बहुत पाखंडी है ये दुनिया
इनकी बातों में आकर कविता लिखी
तो कलम और कागज़ भी माफ़ नहीं करेंगे
इस मतलब की दुनिया के लिए
मैं अपने हमराहों को धोखा नहीं दे सकती
साथी मैंने सबकुछ करके देख लिया है
मैं आज भी उसी पेड़ के नीचे उकड़ू बैठ
गुबार देख रही हूँ
बस अब मुझे किसी का इंतज़ार नहीं
और वो कहते हैं कि शीतल छाँव में
पिया-मिलन पर छंद बनाओ
इन लोगों को अरमान और हसरत
में फर्क समझ नहीं आता
मैंने कहा था न, दुनिया अपनी नहीं है
हमारी कवितायेँ इनके लिए नहीं हैं
मार्क्स ने कहा था कि हमें इतिहास बदलना होगा
पर साथी, समय तो हर गुज़रते हुए पल के साथ दम तोड़ रहा है
समय तुम्हें अभी पहचान नहीं है समय की
लगता है तुमने हवाओं का पागलपन नहीं देखा
ये जो हवाएं है न
इनकी न तो किसी से यारी है
न किसी से उधारी
इनका भी कोई लॉर्ड नहीं है
और ये फिज़ाओं का दोष भी मुझ पर चढ़ाएंगे
ठीक है मैं नहीं हूँ वो सब जो मुझे होना चाहिए
पर गनीमत है कि मैं तुम नहीं हूँ
कोई ज़िन्दगी की महानता की बात करता है
तो लगता है जैसे कोई मज़ाक हो
ज़िन्दगी.....ज़िन्दगी......
आज सुबह जो अखबारों में मर गए
या जो बस कागजों में जिंदा हैं,
जो दफ्तरों की धूल खाती फाइलों में कैद हैं,
जो अस्पताल के बिस्तरों से बंधे हैं,
इनकी ज़िन्दगी के बारे में क्या ख्याल है, महोदय?
साथी, ये ज़िन्दगी बहुत ही दोगुला शब्द है
किसने दिया इन मुट्ठीभर लोगों को
ज़िन्दगी की खूबसूरती बयान करने का ठेका
खैर जिसको करना है वो करे
मुझसे तो नहीं होगी ये अतिशयोक्ति
मैं लिखूंगी तो किसी के भाव आहत होंगे
मैं अपने ही भावों को मार दिए देती हूँ
मैं कोई कविता लिखती ही नहीं
साथी! अब रहा नहीं जाता
मन फटा जा रहा है
मैं बहुत परेशान हूँ खुद से
किससे क्या कहूँ?
मैंने किसके लिए क्या नहीं किया?
ये हमारे साथ क्या हो गया
किसके दुखों के लिए.....
हम क्या बन गए हैं
क्या यही तासीर होती है हर संघर्ष की
कौन सुनेगा हमारा रुदन?
छोड़ो साथी! शब्द पढ़ने की भूख से
हर पल मरेंगे
इससे अच्छा होगा कि
मैं नहीं लिखूंगी कोई कविता
ले लो मुझसे ये कानून की भारी-अँधेरी किताबें
रखो अपनी मौत अपने पास
मुझे एक ढाई रूपए की कलम और हाथ-भर कागज़ दे दो
मैं अपने मन की आग उस पर लगा दूँगी
वो कविता नहीं है, बस शब्दों का खंडहर है

 

 

 

श्रद्धा उपाध्याय

 

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