Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
Administrator

मैंने माँ-बाप की आँखों में सपनों को पलते देखा है

 

   मैंने माँ-बाप की आँखों में सपनों को पलते देखा हैं

और बच्चों के हाथों उन्हें बिखरते देखा हैं।

पापा ने चाह बेटा इंजिनियर बन जाए,

माँ ने भी उसे डॉक्टर बनाने का ख़्वाब सँजोया था

पर मैंने तो उसे यहाँ बस बाबू- जानू करते देखा हैं।

हाँ मैंने यहाँ माँ-बाप के सपनों को पल-पल बिखरते देखा हैं।

आशा थी उनकी भी बढ़े पल – पल वो,पर मैंने तो उसे हर पल यहाँ नशे में धुत होते देखा हैं।

बड़ी उम्मीद से भेजें किताबों के पैसों से पार्टियां करते देखा हैं।

उन सपनों को आशाओं को मैंने आंसुओ में बदलते देखा हैं।

हाँ मैंने यहाँ माँ-बाप के सपनों को पल पल बिखरते देखा हैं।

पापा के उन फटे जूतों को यहाँ बेटे की बेरुख़ी से तड़पते देखा हैं।

माँ के आँचल को भी मैंने बिलखते देखा  हैं।

हाँ मैनें यहाँ माँ-बाप के सपनों को पल पल बिखरते देखा हैं।

बचपन में खरोच आ जाने पर सहम जाने वाले दिल का हाल भी देखा हैं,

हाँ मैनें उसे यहाँ मार पीट कर अस्पताल जाते देखा हैं।

ज़िद पूरी करते करते पीछे छूटी उन अधूरी ख्वाहिशों को कोने में

पड़े टकटकी बांध उसकी सफलता की तमन्ना करते देखा हैं,

पर मैनें तो उसका सब जान कर अनजान बनना भी देखा हैं।

कंधों पर बिठा कर दुनिया की सैर कराने वाले कंधों को भी उसकी गलती से झुकते देखा हैं।

हाँ मैनें उन आँखों को लोगों की नजरों से बचते देखा हैं,

हाँ जिसमें पलते हजारों ख़्वाब थे उन्हें बचते देखा हैं।

परवरिश करने वाले उन हाथों को भी मज़बूरी में बेबस होते देखा हैं।

हाँ मैंने यहाँ माँ-बाप के सपनों को पल पल मरते देखा हैं।

हाँ मैंने यहाँ माँ-बाप के सपनों को पल पल बिखरते देखा हैं।

Powered by Froala Editor

LEAVE A REPLY
हर उत्सव के अवसर पर उपयुक्त रचनाएँ