Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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बुलावा

 
बुलावा
आओ, चले आओ 
खिड़कियों से उतरती
सुबह की किरन की तरह
मेरी हथेलियों पर पसर जाओ
रूप, गंध, स्पर्श, रस में तुम ही तुम
उतर जाओ मेरे भीतर
भर जाओ रोम-रोम में
आओ बिना कोई सवाल किये
किताब के पन्नों की तरह
खुल जाओ अक्षर-अक्षर
उतर जाओ मेरी आँखों में
मैं आ रहा हूं, आओ तुम भी
जल में जल की तरह
पसर जायें हम-तुम
सागरवत, अंतहीन, एकाकार
( 'सलीब पर सच' संग्रह से)

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