मेरे प्रिय अनुज, स्वतंत्रचेता पत्रकार, संपादक और कवि अरुण सिंह की वाल से। अरुण चीजों को देखते हैं, समझते हैं और जो अनुभव करते हैं, बेलाग कहने में संकोच नहीं करते। ( यह पुस्तक 'मूर्तियों के जंगल में' मेले में सेतु के स्टाल पर उपलब्ध है।)कवि के भीतर की प्रतिध्वनियाँ
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पत्रकार-कवि सुभाष राय को आग बहुत प्रिय है। उनमें आग को जानने की अपार जिज्ञासा रही है। वे आग को समझने तथा उसके बारे में जानकारी जुटाने के लिए लम्बे समय से लगातार लगे हैं। कविता-संग्रह “सलीब पर सच” के बाद उनका यह दूसरा काव्य-संग्रह है, आलेखों के संग्रह को छोड़कर।उनके इस ताजे कविता-संग्रह “मूर्तियों के जंगल में” में बहुत-सी ऐसी रचनाएँ हैं जिनमें आग बिखरी हुई है। यह आग व्यंजना, अभिधा और लक्षणा तीनों रूपों में उपस्थित है।इस आग का विस्तार मनुष्य, मनुष्येतर और प्रकृति को तक है।यह ऐसे मनुष्य के भीतर की आग है जो मनुष्यता के पक्ष में हमेशा इसे जलाये रखना चाहता है।दरअसल, सुभाष राय का यह बुनियादी चरित्र है-बेसिक इंस्टिंक्ट। पत्रकार होने के नाते वे प्रतिपक्ष चुनना चाहते हैं,और उन्होंने यही चुना भी।
दरअसल, “मूर्तियों के जंगल में” से कई आवाजें आती हैं-ये आवाजें हैं सत्ता के अहंकार की, भूख की, अन्याय और अत्याचार की, यह आवाजें शातिरानेपन की हैं, इसमें राजा का अट्ठहास है-रंक की कराह है, साथ ही पागलपन और कई तरह के उन्माद हैं।
इस संग्रह की शीर्षक कविता आज के समय का रूपक है।यह रूपक है बहुत कुछ बदल जाने का, यह रूपक है बहुत कुछ बदल देने का।यह रूपक है उस शोर को सुनकर सजग हो जाने का, जो आज हमारे आस-पास उग आए जंगलों से आ रहा है।
संग्रह की शुरुआती कई रचनाएँ आग से ही भरी हैं।आख़िर आग उन्हें इतना लुभाती क्यों है? इस जवाब में उनकी एक छोटी सी कविता ही उठा लीजिएः
“सुलगते रहना”
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