माँ ने उन दिनों कवितायेँ लिखीं ,
जब लड़कियों के
कविता लिखने का मतलब था
किसी के प्रेम में पड़ना और बिगड़ जाना ,
कॉलेज की कॉपियों के पन्नों के बीच
छुपा कर रखती माँ
कि कोई पढ़ न ले उनकी इबारत
सहेज कर ले आयीं ससुराल
पर उन्हें पढ़ने की
न फुर्सत मिली , न इजाज़त !
माँ ने जब सुना ,
उनकी शादी के लिए रिश्ता आया है ,
कलकत्ता के स्कॉटिश चर्च कॉलेज से
बी कॉम पास लड़के का ,
माँ ने कहा ,
मुझे नहीं करनी अंग्रेजी दां से शादी !
उसे हिंदी में लिखना पढना आना चाहिए !
नाना ने दादा तक पहुंचा दी बेटी की यह मांग
और पिता ने हिंदी में अपने
भावी ससुर को पत्र लिखा !
माँ ने पत्र पढ़ा तो चेहरा रक्ताभ हो आया
जैसे उनके पिता को नहीं ,
उनको लिखा गया हो प्रेमपत्र
शरमाते हुए माँ ने कहा –
” इनकी हिंदी तो मुझसे भी अच्छी है ”
और कलकत्ता से लाहौर के बीच
रिश्ता तय हो गया !
शादी के तीन महीने बाद ही मैं माँ के पेट में थी ,
पिता कलकत्ता में , माँ थीं लाहौर ,
जचगी के लिए गयीं थीं मायके !
खूब फुर्सत से लिखे दोनों
हिंदी प्रेमियों ने प्रेम पत्र ,
बस , वे ही चंद महीने
माँ पिता अलग रहे ,
उस अलगाव का साक्षी बना
उन खूबसूरत चिट्ठियों का पुलिंदा ,
जो लाल कपडे में एहतियात से रख कर
ऐसे सहेजा गया
जैसे गुरु ग्रन्थ साहब पर
लाल साटन की गोटेदार चादर डाली हो
हम दोनों बहनों ने उन्हें पढ़ पढ़ कर
हिंदी में लिखना सीखा !
शायद पड़ा हो अलमारी के
किसी कोने में आज भी !
पिता छूने नहीं देते जिसे .
पहरेदारी में लगे रहते हैं ,
उम्र के इस मोड़ पर भी .
बस ,
माँ जिंदा हैं उन्हीं इबारतों में …
हम बच्चे तो
अपनी अपनी ज़िन्दगी से ही मोहलत नहीं पाते
कि माँ को एक दिन के लिए भी
जी भर कर याद कर सकें ! …..
उस माँ को –
जो एक रात भी आँख भर सो नहीं पातीं थीं ,
सात बच्चों में से कोई न कोई हमेशा रहता बीमार ,
किसी को खांसी , सर्दी , बुखार ,
टायफ़ॉयड , मलेरिया , पीलिया
बच्चे की एक कराह पर
झट से उठ जातीं
सारी रात जगती सिरहाने …
जिस दिन सब ठीक होते ,
घर में देसी घी की महक उठती ,
तंदूर के सतपुड़े परांठे ,
सूजी के हलवे में किशमिश बादाम डलते
घर में उत्सव का माहौल रचते !
दुपहर की फुर्सत में
खुद सिलती हमारे स्कूल के फ्रॉक ,
भाईओं के पायजामे ,
बचे हुए रंग बिरंगे कपड़ों का कांथा सिलकर
चादरों की बेरौनक सफेदी को ढक देतीं ,
क्रोशिये के कवर बिनतीं ,
साड़ी का नौ गज बोर्डर
पैसा पैसा जोड़ कर
खड़ा किया उन्होंने वह साम्राज्य ,
जो अब साम्राज्य भर ही रह गया
एल.ई.डी टी.वी पर क्रोशिये के कवर कहाँ जंचते हैं !
यूँ भी ईंट गारे के पक्के मकानों में अब
एयर कंडीशनर धुंआधार ठंडी खुश्क हवा फेंकते हैं ,
उनमें वह खस की चिकों की सुगंध कहाँ !
धन दौलत के ऐश्वर्य में नमी बिला गयी !
फाइव स्टार रेस्तरां में
चार पांच हज़ार का डिनर खाने वाले बच्चे
कब माँ के तंदूरी सतपुड़े पराठों को याद करते हैं ,
जिन्हें सेंकते न जाने कितनी बार जली माँ की उँगलियाँ !
माँ ,
उँगलियाँ ही नहीं ,
बहुत कुछ जला तुम्हारे भीतर बाहर
पर कब की तुमने किसी से शिकायत !
अब भी खुश हो न
कि खूबसूरत फ्रेम में मढ़ी तुम्हारी तस्वीर पर
महकते चन्दन के हार चढा
हम अपनी फ़र्ज़ अदायगी कर ही लेते हैं !
तुम्हारे क़र्ज़ का बोझ उतार ही देते हैं !
माँ ,
तुम उदास मत होना ,
कि तुम्हारे लिए सिर्फ एक दिन रखा गया
जब तुम्हें याद किया जायेगा !
बस , यह मनाओ
कि बचा रहे सालों - साल
कम से कम यह एक दिन !
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