अँगारों जैसे तेवर फूलों के, अब वह ठंडक ढूँढ रहा है।
पानी की परतों के बीच में, हवा फूँक से ठूँस रहा है।
फूल से काँटा अलग किया जो, उस काँटे को ढूँढ रहा है।
खुशबू लाने की हर कोशिश में, कृत्रिम फूलों को सूँघ रहा है।
फूस को आग दिखाने वाले, उस साजन को ढूँढ रहा है।
साजन को रोज सजाने वाले, उस दर्पण को ढूँढ रहा है।
जिस आँगन में फूल खिलाये, उस आँगन को ढूँढ रहा है।
बेटा जो बाप बन गया है, उस बाप में बेटा ढूँढ रहा है।
सपने जो भी देखे थे, उन सपनों से वह टूट रहा है।
पहले चुन-चुनकर फूल जुटाए, अब वह माला गूँथ रहा है।
सुधीर बंसल
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