ढेर किताबों के बैठा, ज्ञान न रत्ती बढ़ पाया।
अथाह समुन्दर में भी डूबा, एक मोती न मिल पाया।
जो चाहत हद से ज्यादा थी, अंश भी उसका न मिल पाया।
प्यार-मोहब्बत के बदले में भी, बस कतरा ही हाथ आया।
आकस्मिक कुछ मिला न अब तक, बिना जतन कुछ नहीं पाया।
जो भी सपना देखा था, उस सपने को संजो नहीं पाया।
बिना जतन पाना चाहा था, असमय ही सारा समय गँवाया।
द्वारा
सुधीर बंसल
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