आदमी व्यस्त रहे मस्त रहे इससे अच्छी बात और क्या। मैं भी व्यस्त हूं Poonam Jha भी व्यस्त हैं और अब आप भी व्यस्त हैं।
Sanjay Sinha उवाच
चित्रलेखा और संजय सिन्हा
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इन दिनों न मैं वीडियो अपलोड कर पा रहा हूं, न ही दिन भर फेसबुक पर लाइक-लाइक खेल पा रहा हूं। न कहीं पत्रकारिता कर रहा हूं, न किसी की चाकरी में उलझा हूं।
संजय सिन्हा कर क्या रहे हैं?
यही सवाल कुछ लोगों ने पूछा है।
संजय सिन्हा नए रोल में हैं। किस रोल में? आपको थोड़ा इंतज़ार करना होगा। संजय सिन्हा सिर्फ कहते नहीं, कर ही गुजरते हैं।
इतनी व्यस्तता हो गई है कि पूछिए मत। रत्ती भर समय नहीं, अपने ही लिए। मुझे व्यस्त होने की आदत है। पिछले कई दिनों से टीवी पर खबरें तक नहीं देख पा रहा। दिलचस्पी ही नहीं रही।
एक आदमी जिसका जीवन सुबह से देर रात तक खबरों में समाया रहा हो, वही खबरों से आज इस कदर दूर है - जैसे कभी ‘चित्रलेखा’ की राज नर्तकी ‘राज’ और ‘नृत्य’ से दूर हो गई थी।
वो सुंदरी चित्रलेखा याद है न आपको? महान लेखक भगवती चरण वर्मा की नायिका। महाराज बीज गुप्त के दरबार की राज नर्तकी। ऐशो आराम में डूबी वो अप्सरा।
उसने क्या देख लिया था?
आईने में अपना चेहरा। सिर पर एक बाल। बस। एक ही बाल सफेद हुआ था। उसने उतने से जीवन का मर्म समझ लिया था। जीवन का मर्म समझने के लिए बहुत नहीं देखना होता है। गौतम ने बुजुर्ग, बीमार और शव को देखा था। चल पड़े थे। नई राह की ओर। चित्रलेखा भी पकड़ ली थी, नई राह।
एक सफेद सच ने उसे जीवन को समझा दिया था। स्वर्ण मुद्राओं पर लोटने वाली चित्रलेखा को अचानक सबसे अधिक घृणा अपनी कमाई माध्यम से ही हो गई थी। जिसने उसे सब कुछ दिया था, नाम, दाम उसी से दूरी?
ऐसा हो जाता है कभी-कभी। किसी-किसी के साथ।
आदमी जिससे बना होता है, उसी से मुक्ति चाहता है।
गौतम ने मुक्ति चाही थी। चित्रलेखा ने भी। संजय सिन्हा भी।
घबराइएगा मत, संजय सिन्हा संतता की ओर नहीं बढ़ चले हैं। उन्होंने कर्मठ जीवन को चुना है। उस काम को, जिसे करने का मन बहुत दिनों से था।
आप सोचिए संजय सिन्हा क्या नया करेंगे? कुछ तो करेंगे।
इन दिनों अपने नए संसार में मस्त हूं। सुबह से देर रात तक। पर हर पल नई खुशियों से सराबोर।
चित्रलेखा खुश थी। बीज गुप्त के राज-पाट से आजाद होकर। गौतम खुश हुए थे पिता के राजपाट से आजाद होकर। संजय सिन्हा खुश हैं अपने चुने संसार से आजाद होकर।
उम्र के बीसवें साल में उन्होंने अपने लिए काम चुना था। क्या करेंगे, ये बाद का प्रयत्न था, क्या नहीं करेंगे ये शुरुआती शर्त थी। एमए की पढ़ाई करते-करते पहले तय हुआ था कि सरकारी नौकरी नहीं करनी है। चाहे जो हो जाए। दूसरी शर्त थी कि नौ से छह की नौकरी नहीं करनी है (असल में दस से पांच)। कभी किसी नौकरी पर लंच साथ लेकर नहीं जाना है। बस।
पहली नौकरी मिली छह घंटे वाली। इंडियन एक्सप्रेस ग्रुप में। सुबह की जगह शाम तीन बजे से रात नौ बजे तक की। अथाह खुशी मिली थी। फिर दूसरी नौकरी मिली इलेक्ट्रानिक मीडिया में पूरे दिन और रात की। हफ्तों घर नहीं लौट पाने की। खाने और पीने की फुर्सत से दूर। ऐसा हुआ कि सिंगापुर से लौटा और एयरपोर्ट से ही ढाका चला गया।
ऐसा भी हुआ कि घर आया, सिर्फ सूटकेस बदल पाया और उड़ गया। इस देश से उस देश। घूमता रहा। पावं में चक्कर लगा रहा।
फिर समय आया, सिर पर एक सफेद बाल दिख गया। सब छोड़ कर जबलपुर जा बैठा। छह महीने तो वहां से दिल्ली आया ही नहीं। न मैं दिल्ली आया, न दिल्ली मुझे याद आई।
फिर लगा कि समय है, तो ‘लॉ’ की पढ़ाई शुरू हो गई। देखते-देखते दो साल निकल गए। एक साल और बचा।
अचानक संजय सिन्हा ने नई व्यस्तता चुन ली। सुबह से रात तक। काम ही काम। इतना कि दाम गिनने तक की फुर्सत नहीं।
मीडिया से मुक्त संजय सिन्हा नया क्या कर रहे हैं? इंतज़ार कीजिए कल, परसों तक। फिर आपके सामने होगी पूरी कहानी।
कहानी संजय सिन्हा की।
अब तक संजय सिन्हा आपकी कहानियां सुनाते रहे। जल्द सुनेंगे आप उनकी कहानी।
आप खुश रहें। मस्त रहें। व्यस्त रहें। इससे अधिक क्या चाहिए?
सीता-राम, सीता-राम।
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