आ बैठ मेरे पास कि तुझे देखता ही रहूं। सीता का प्रेम ही राम के प्रति ऐसा होता है कि वो वन गमन की जिद कर बैठती है और राम का प्रेम उन्हें उस घनघोर कष्ट से बचाने के लिए साथ न ले जाने की हठ करता है परंतु जीत हमेशा सीता के प्रेम की ही होती है। राम का प्रेम जानते बुझते भी सीता के लिए बहुरूपिए सोने की हिरण के पीछे दौड़ जाते हैं। मेरी सीता नौकरी में मेरे रहते हुए परिवार के सरंक्षण हेतु मेरे साथ न रहकर कष्ट उठाती रही फिर मेरे पुजारी बनने पर साथ रहकर भी कष्ट का ही मार्ग चुनी। धन्य हैं भारत की स्त्रियां। वे सदा खुद से पहले पति और परिवार को ही चुनती हैं। हालांकि अब अमेरिकी संस्कार से नई पीढ़ी काफी ग्रस्त होती जा रही है। अब वो हर हाल में केवल अपना और अपने सुख की सोचती है।
Sanjay Sinha उवाच
बैठ मेरे पास, तुझे देखता रहूं
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(L&T को समर्पित)
जिन दिनों मैं अमेरिका में था, मेरे एक अमेरिकी दोस्त ने कहा था कि भारतीय पति अपनी पत्नी से प्यार नहीं करते हैं। वे ऑफिस में देर तक रुकने को अपनी योग्यता मानते हैं और सोचते हैं कि घर में अधिक देर रहकर क्या होगा? वही बात कि वे अपनी पत्नियों को नहीं निहारते।
एल एंड टी कंपनी के चेयरमैन ने जब यह कहा कि उठो और सप्ताह में 90 घंटे काम करो, तो बात उतनी बुरी नहीं होती, जितनी कि उन्होंने यह कहकर भारतीय मर्दों की पोल खोल दी है कि आप कितनी देर अपनी पत्नी को निहार सकते हैं?
उनके सप्ताह में 90 घंटे काम करने के ज्ञान पर बहस छिड़ी है। इस पर कोई नहीं पूछ रहा कि वो पत्नी को निहारने के खिलाफ क्यों हैं? क्या वे प्यार करना भूल गए हैं? या फिर उनके लिए प्यार पत्नी से बाहर की चीज़ हो गई है।
आदमी इस दुनिया में प्यार के बूते आया है और प्यार ही वह तत्व है जो आदमी को जीवित रखता है। अगर प्यार नहीं तो कोई कितना भी काम करे, उसका क्या लाभ? और क्यों करना चाहिए काम?
एल एंड टी के चेयरमैन साहब को अपनी पत्नी से पूछना चाहिए कि वे उनके बारे में क्या राय रखती हैं? कहीं ऐसा तो नहीं कि वे खुद चाहती हों कि इतना बोरिंग इंसान हफ्ते में सात की जगह आठों दिन बाहर रहे तो कितना अच्छा हो।
असल में भारत में पुरुषों को प्रेम करना ही नहीं आता है। पत्नी से तो बिल्कुल नहीं। वे पत्नी (जीवनसाथी) से प्रेम का मर्म समझते ही नहीं। वे अधिक से अधिक... (आप समझ गए न), उसी को प्रेम मानते हैं। साल में दो-चार बार थाईलैंड, स्पेन में अपनी मीटिंग करने तक उनका प्रेम सिमट कर रह जाता है, बिना यह विचारे कि कभी जब नाक के नीचे बाल उगे होंगे तो अग्नि के सात फेरे लेते हुए वे कुछ बुदबुदाए थे।
असल में भारतीय पति प्रेम के मामले में ‘ठनठन गोपाल’ होते हैं, जबकि पत्नियां प्रेम को जीती हैं। उनके भीतर प्रेम को जीने की गजब की क्षमता होती है। पति का प्रेम ‘जिम्मेदारी’ और ‘सीमित सुख’ तक समाहित होता है, पत्नी प्रेम में खुद को खुश रखना जानती है, पति को भी खुश रखना जानती है। वह जानती है कि खुशी का अर्थ 90 घंटे घर से बाहर रहने में नहीं, बाहर से जल्दी घर आकर पार्टनर को निहारने में है।
मैं कोई ‘वयस्क कथा’ नहीं लिख रहा कि आप नाक-भौं सिकोड़ें। संजय सिन्हा एक सच्चाई बयां कर रहे हैं कि भारतीय (अधिकतर) पति अपनी पत्नी के प्रेम की कसौटी पर खरे नहीं उतरते हैं। उनका प्रेम शादी के कुछ वर्षों तक उतना ही होता है, जितना वो बचपन में दाएं-बाएं से सीखकर बड़े होते हैं (प्रेम कहीं सिखाया तो जाता नहीं)। उन्होंने घर में प्रेम को देखा ही नहीं है, प्रेम के रिश्तों को जीना उन्हें पता ही नहीं है, इसलिए यह ठीक है कि वे अपनी पत्नी को घर में छोड़कर कभी ऑफिस या फिर (पैसे हों) तो दूर देश में ऑफिस में काम करने वाले सहयोगियों/सहयोगिनियों के साथ मीटिंग करें। वहां काम करें।
भारत में मर्दों (पतियों) को रिश्ता जीना सिखलाया ही नहीं जाता है। वे यह जान नहीं पाते कि उनके लिए जो प्यार है, महिला के लिए वह प्यार का ‘ककहरा’ है। वे जब अपने प्रेम से खारिज होते हैं, तब महिला प्रेम को जीना शुरू करती है। पर यह कौन बताए?
पति के प्रेम का उद्देश्य ही भिन्न है, पत्नी के प्रेम से। वे अपने धन से पत्नी को ‘संतुष्ट’ करने का आडंबर रचते हैं, बिना यह समझे कि पत्नी को संतुष्टि पति के ‘निहारने’ से मिलती है, उसके लिए पति का उसे निहारना अलौकिक प्रेम है।
मेरे पिता अपनी बीमार पत्नी को उसके कैंसर के आखिरी स्टेज में भी सारी रात निहार सकते थे। पिताजी सुबह दस बजे ऑफिस जाते थे। शाम को पांच बजे घर लौट आते थे। जब उनकी पत्नी (संजय सिन्हा जानबूझकर मां नहीं लिख रहे क्योंकि कथा पति-पत्नी प्रेम पर है) स्वस्थ थीं, तो शाम की चाय दोनों साथ पीते थे। वो हर शाम पिताजी के आने से पहले दिन भर के काम के बाद तैयार होती थी। फिर चाय का पानी चूल्हे पर चढ़ाती, कभी पकौड़े, कभी आलू के चिप्स तलती, कभी कुछ और बनाती। मुद्दा खाना नहीं होता था, मुद्दा साथ बैठना और सारे दिन की बची हुई बातों को एक-दूसरे को ‘निहारते’ हुए साझा करना होता था।
मेरे पिताजी की पत्नी जब बहुत बीमार हो गई थीं, तब भी वह महिला अपने पति के घर आने से पहले आईना देखकर बिस्तर पर लेटी-लेटी अपने बाल संवारती थी। सिंदूर की अपनी बिंदी ठीक करती थी, कभी-कभी काजल लगाती थी।
और पिताजी?
वह घर में कभी बनियान लुंगी या पायजामा में नहीं घूमते थे। अपनी बहुत बीमार पत्नी के सामने भी वह बढ़िया कपड़े पहनकर, कंघी करके बैठते थे। और जब उनकी पत्नी इस दुनिया से चली गईं तो वह अधिक से अधिक चालीस के आसपास रहे होंगे, चाहते तो दुबारा शादी कर लेते, नया प्यार बसा लेते लेकिन उन्होंने अपनी पत्नी की तस्वीर मंदिर में रखकर उसकी पूजा शुरू कर दी थी। वो उसकी फोटो निहारते थे।
मुझे लगता है कि L&T के चेयरमैन साहब को एक बार अपनी पत्नी से (हों तो) पूछना चाहिए। पूछना चाहिए कि...
छोड़िए, नहीं पूछेंगे। भारतीय पतियों में दम नहीं कि अपने प्रेम के बारे में अपनी पत्नी से पूछ लें। पूछ लेंगे तो चाहे वे चार बच्चों के बाप बन चुके हों, उनकी पोल पत्नी की आंखों से खुल जाएगी। मैं तमाम लोगों को जानता हूँ जो पत्नी के आगे प्रेम की पोल खुलने के डर से घर से भागकर साधु बन गए। पुजारी बन गए। टूर पर रहते हैं। अरे जब पुजारी बनना था, साधु बनना था तो शादी ही क्यों की? की तो उसे भी साथ ले जाते कि चलो हम साधु बनेंगे, तुम साध्वी बन जाना।
मैं ‘राम’ को इसलिए बहुत सराहता हूं कि वन जाते हुए भी जब उनकी पत्नी ने कहा कि साथ ले चलो, तो वे साथ लेकर गए। ले ही जाना चाहिए। जो छोड़कर जाते हैं (चाहे 90 घंटे काम करने या फिर साधु बनने) वे अपनी पत्नी के प्रेम के हत्यारे होते हैं।
पश्चिम के देशों में पत्नियां अपने प्रेम के हक के लिए लड़ना जानती हैं। हमारे यहां नहीं। वे पूरी ज़िंदगी गुजार देती हैं, बिना प्रेम को जिए हुए। हमारे देश में कभी विधवा महिलाओं की ज़िंदगी तबाह होती थी। महान लोगों ने उसकी पीड़ा महसूस की। लेकिन उन महिला की पीड़ा पूछने कौन आगे आएगा, जो खुलेआम कहें कि अपनी पत्नी को निहारना समय की बर्बादी करना है।
नहीं निहाराना था तो नहीं करते शादी। सारा दिन कारखाने में रहते। लेकिन आपने तो शादी की। किसी से वादा किया था प्रेम का। शादी के समय ही कह देते कि 90 घंटे बाहर रहूंगा। तुम्हें नहीं देखूंगा। फिर देखते कि क्या होता है?
ये तो भारतीय पत्नियां हैं (अधिकतर) जो आपके सुख में अपना सुख तलाश लेती हैं, और कुछ नहीं कहतीं या करती हैं। वो आपके प्रेम के आगे खुद को समर्पित करके उसी को जीवन मान कर जी लेती हैं। सोचिए, चेयरमैन साहब की पत्नी अगर जो अमेरिकी होती (वैसे मुझे उनकी पत्नी के विषय में कोई जानकारी नहीं कि कहां की हैं) तो वो अब तक (बहुत पहले) टाटा बाय-बाय करके निकल लेतीं। कहतीं जाओ निहारो अपने बनाए पुल को।
भारतीय पति अपनी पत्नी को ‘अप्रेम’ का इतना अधिक विकर्षण देते हैं कि पत्नियां मन ही मन प्रेम को जीना छोड़ देती हैं।
चलताऊ भाषा में कहूं तो भारतीय पति कभी अपनी पत्नी के प्रेम की इच्छा को न पहचानते हैं, न उसकी कद्र करते हैं। प्रेम के संतोष की तो बात ही छोड़ दीजिए। एक बहुत मशहूर लेखिका ने लिखा था कि भारतीय पत्नियां अपनी रातें सिनेमा के हीरो को मन में बसा कर गुजारती हैं। मैं लेखिका का नाम नहीं लिख रहा, लेकिन उन्होंने अपने पति के होते हुए ये स्वीकार किया था कि रेटिना के आगे पति होते हैं, रेटिना के पीछे राजेश खन्ना।
सोचिए क्या रह गया बाकी? बनाते रहिए अरबों डॉलर की संपत्ति। पत्नी मन ही मन राजेश खन्ना से खुद को ‘निहरवा’ रही है।
चेयरमैन साहब, ज़िंदगी 'मुहब्बत' से मयस्सर हुई है। मुहब्बत को जीते रहिए। अपनी पत्नी के अरमानों को पंख दीजिए क्योंकि शरीर का चाहे जो हो, मन मरते दम तक प्रेम चाहता है।
नोट-
1.गौतम घर से छिप कर निकल गए थे। दुनिया में चाहे जितना नाम हुआ हो, राम की तरह पत्नी को साथ लेकर जाते तो आज भारत के हर घर में होते। जो प्रेम को नहीं जीता, वो कितना भी बड़ा आदमी हो, संजय सिन्हा की नज़र वो आदमी है ही नहीं।
2. मनुष्य भावनाओं से संचालित होता है। कारणों से तो मशीनें चला करती है। फर्क नहीं पड़ता कि मशीन ‘इनफोसिस’ की है या ‘एलएंडटी’ की।
3. बैठ मेरे पास तुझे देखता रहूं एक फिल्मी गाना है (यादों की कसम)।
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