सुप्रभात जी।
कहानी सुनी सुनाई।
भक्ति में आनन्द कब नहीं आता ? जब कोई मनुष्य उसे सामान्य जीवन क्रम से भिन्न एक विशेष कर्तव्य समझकर करता है। ऐसा भाव रहने से कुछ समय बाद भक्ति उसे एक अनावश्यक बेगार-सी अनुभव होने लगती है, जिससे वह आनन्द अनुभव करने के स्थान पर थकान अनुभव करने लगता है और कुछ ही समय में उसे छोड़छाड़ कर बैठ जाता है।
मनुष्य का सहज स्वभाव है कि जो कार्य उसके जीवन-क्रम में रमे नहीं होते अथवा जिनका वह अभ्यस्त नहीं होता उनके करने में वह खिन्नता ही अनुभव करता है। यहां तक कि रोजमर्रा के बंधे टके कामों में भी यदि कोई काम आकस्मिक आवश्यकतावश बढ़ जाता है तो वह उसे एक बेगार, एक बोझ की तरह करता है।
वही नियम भक्ति के विषय में भी लागू रहता है। अतएव भक्ति जीवन-क्रम से भिन्न किसी विशेष कर्तव्य की भाँति नहीं, जीवन-क्रम के एक अभिन्न अंग की भाँति करना चाहिये। भक्ति जब जीवन का एक आवश्यक अंग बन जाती है तो उसकी पूर्ति करने में वैसी ही तृप्ति होती है जैसी अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति में।
सुरपति दास
इस्कॉन
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