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धर्मराज के मित्र की कहानी

 
जीवन में जो भी मिलता है वो अपना कर्ज चुकता करने या कर्ज वसूलने के लिए ही मिलता है । चाहे वो कर्ज पैसे का हो या रिश्ते का या एहसान या प्यार का ।
Sanjay Sinha उवाच
धर्मराज के मित्र की कहानी
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आप में से अधिकतर लोग मोटूराम को जानते हैं। पहचानते हैं। फिर भी परिवार में कई नए परिजन जुड़े हैं, उन्हें मोटूराम के बारे में शायद न पता हो तो जानना चाहिए। मुझे मालूम है कि आप सोचेंगे कि अभी दो साल पहले ही मोटूराम की कहानी संजय सिन्हा सुना चुके हैं तो दुबारा क्यों? 
बात ये है कि संजय सिन्हा तो फिर भी कुछ -कुछ नया सुना रहे हैं, क्योंकि उनके पास संपूर्ण जीव-जगत के लिए कहानी है, अन्यथा लोग अपनी तस्वीर चिपका कर कि आज ये बनाया, आज ये खाया, आज ये, कल वो... बस।
कहने के लिए किसी के पास कुछ है ही कहां? दुनिया में राम राज्य चल रहा है, और जब राम राज्य चलता है तो कहने के लिए कुछ नहीं होता है। राम राज्य के बाद आया था, युधिष्ठिर राज्य। 
रामराज्य के बाद जब धर्मराज (रिटर्न ऑफ रामराज्य) आ गया तो एक दिन धर्मराज उठे और अपने श्वान मित्र के साथ निकल लिए स्वर्ग की ओर। दस साल पहले कुछ न्यूज़ चैनल उस सीढ़ी को ढूंढ लाए थे (आप में से कइयों को याद न हो, क्योंकि आदमी की यादें कमज़ोर होती हैं) और कई-कई दिन न्यूज़ चैनल पर रिपीट शो दिखला-दिखला कर विज्ञापन जुटाते रहे थे कि मिल गई स्वर्ग की सीढ़ी। वो सीढ़ी जिसके ऊपर खटाखट चढ़ कर राजा युधिष्ठिर (धर्मराज) अपने श्वान मित्र के संग स्वर्ग पहुंच गए थे। 
मतलब राजा, श्वान (वैसे तो श्वान को देसी भाषा में कुत्ता कहते हैं) और स्वर्ग का गहरा रिश्ता है। संजय सिन्हा आज लेकर आए हैं श्वान कथा। पुराने और तथाकथित सीनियर जर्नलिस्ट लोग अब राज्य के विषय में कुछ नहीं लिख रहे, जो पहले लिखते थे, तो संजय सिन्हा क्या लिखेंगे। वो तो बचपन से रिश्ते, प्रेम और मां की कहानियां सुना रहे हैं। आज भी कहानी प्रेम की ही है। रिश्तों की है। 
आज की कहानी मैंने दुबारा क्यों सुनाई, इसका रहस्य जानने के लिए लिए आपको थोड़ी देर इंतज़ार करना होगा। बताऊंगा। लेकिन पहले मोटूराम की कहानी सुन लीजिए। 
मेरी आज की कहानी प्रेम की कहानी है, रिश्तों की कहानी है। मैंने प्रेम और रिश्तों पर न जाने कितनी कहानियां आपको सुनाई हैं। लेकिन आज संजय सिन्हा कहानी के जिस पात्र से मिलाने ले चल रहे हैं, वो कुछ अलग हैं। 
मैं आज लंबी-चौड़ी भूमिका नहीं बांधना चाहता। सीधे-सीधे मुद्दे पर आना चाहता हूं और बताना चाहता हूं कि जब हमारी किसी से मुलाकात होती है तो उसका संबंध प्रारब्ध से कैसे जुड़ जाता है। 
मेरी आज की कहानी के नायक हैं मोटूराम। 
अब नाम सुन कर चौंकिएगा मत कि संजय सिन्हा कहीं मोटू-पतलू की कहानी तो नहीं लेकर चले आए। बिल्कुल नहीं। मोटूराम एक प्यारे से डॉगी हैं और किसी से अधिक बातचीत नहीं करते। चुप रहते हैं। आप उनके मालिक के घर जाएंगे तो वे आपके पास आएंगे ज़रूर पर ऐसा बिल्कुल नहीं है कि आप उनकी पीठ पर हाथ फेरें, उनके सिर को सहलाएं तो वो खुश होंगे। बल्कि सच कहें तो सिर छूने से वो नाराज़ होते हैं। हां, उन्हें छेड़िए मत, बस वो आपके पास आएंगे, थोड़ी देर आपको परखेंगे फिर चुपचाप आराम से बैठ जाएंगे। 
मेरे लिए इस बात की कोई अहमियत नहीं कि मोटूराम डॉगी में किस प्रजाति के हैं। पर ये कहानी फिर भी आपके पास लेकर आया हूं तो उसकी वजह है। 
मैं गया था कर्नल धोरेलिया के घर। उन्होंने और उनकी पत्नी मीनू धोरेलिया ने खाने पर बुलाया था। मोटूराम से वहीं मुलाकात हुई। वो मेरे पास आए। सूंघे, देखे और चले गए। फिर जब हम ड्राइंग रूम में बैठे तो वो सामने बैठे रहे। मुझे लग रहा था कि इनका कोई इंगलिश नाम होगा। आम तौर पर लोग डॉगी का नाम अंग्रेजी दा रखते हैं, पर कर्नल साहब ने कई बार उन्हें मोटूराम कहा तो मैं मन ही मन हंसा कि आजकल कोई अपने डॉगी को भला मोटू बुलाता है? बल्कि कोई और बुलाए तो आदमी नाराज़ ही होता है। 
खैर, मोटूराम की कहानी आगे बढ़ती है। मैंने यूं ही कह दिया कि आपके मोटूराम तो बहुत शांत हैं। चुपचाप बैठे रहते हैं। बस यहीं से कहानी शुरू होती है। मीनू जी ने बताया कि भैया, ये हमारा डॉगी नहीं है। हमने इसे नहीं पाला है। 
“आपका नहीं? फिर किसका है?”
भैया, ये इसी मुहल्ले में रहने वाले एक पड़ोसी का डॉगी है। वो इसे कहीं से लाए थे। घर में उन्होंने पाला, पर जब हम यहां आए तो ये पता नहीं क्यों रोज़ सुबह हमारे घर के बाहर आकर बैठ जाता था। अब ये थोड़ा मोटा था तो हमने इसे मोटू बुलाना शुरू कर दिया। इनके मालिक इनसे परेशान थे, कहते थे कि तंग कर रखा है, इसीलिए मैं इसे रोज़ छोड़ देता हूं। पर ये आपके घर के बाहर जाकर शांति से बैठ जाता है, पता नहीं क्यों? ये रोज़ का क्रम था। इसके मालिक आते इसे पकड़ कर ले जाते थे। पर ये जैसे ही पहला मौका मिलता हमारे घर के बाहर आकर बैठ जाता। कभी दरवाज़ा खुला होता तो ये भीतर भी आने लगा। बस चुपचाप बैठा रहता। इस तरह इसके मालिक ने देखा कि ये हमारे घर आकर बैठता है तो उन्होंने इसकी परवाह कम करनी शुरू कर दी। अब वो एक दो दिन इसे लेने भी नहीं आते थे। 
ऐसे ही एक दिन हम कुछ दिनों के लिए बाहर जा रहे थे तो मोटूराम घर पर आकर बैठ गए। मैंने नौकरानी से कहा कि इन्हें कुछ देर बाद इनके ऑरिजनल मालिक के घर छोड़ आना हम हफ्ते भर में लौट आएंगे। 
हफ्ते भर बाद हम आए तो मोटूराम यहीं जमे थे। नौकरानी से पूछा तो उसने बताया कि वो इन्हें लेकर मालिक के घर गई थी। पर मालिक के यहां ताला था। फिर क्या करती? ये यहीं चले आए। हम हैरान थे। कैसा डॉगी है। अपना अच्छा-भला घर छोड़ कर यहां जमा है। अब ये छोटे भी नहीं थे कि इन्हें हम पालते। पर ऐसा लग रहा था कि हमने इन्हें भले नहीं चुना, पर इन्होंने हमें चुन लिया था। 
कुछ दिन बाद इनके मालिक आए ले जाने के लिए, पर ये टस से मस नहीं हुए। खीझ कर मालिक ने कहा कि इन्हें आप ही रखिए। इतने दिन हमने इसे रखा, पर इसका दिल पता नहीं क्यों हमारे घर नहीं लगता। और संजय भैया, तब से यानी पिछले दो साल से ये यहीं जमे हैं। इनका पिछला मालिक आता है तो ये चुपचाप दूसरे कमरे में चले जाते हैं। सुबह टहलते वक्त रास्ते में मिल जाएं तो ये किनारे हो लेते हैं। अब क्या कहें, रह रहें तो रख रहे हैं। पर ये हम लोगों से अथाह प्यार करते हैं। बस इनके सिर को नहीं छूना है। पता नहीं क्यों सिर सहलाते ही भड़क उठते हैं। 
मैं चुपचाप मोटूराम को देख रहा था। मैंने ऐसा तो देखा है कि लोग अपने लिए डॉगी चुनते हैं, पसंद करते हैं, घर लाते हैं। पर पहली बार देख रहा था कि डॉगी ने अपने लिए मालिक खुद चुना है, उन्हें पसंद किया है और खुद घर आया है। 
मोटूराम को देख कर मुझे भी बहुत प्यार आया। मन में ये ख्याल भी आया कि हर रिश्ते का कोई न कोई पूर्व जन्म का प्रारब्ध होता है। वर्ना पूरा बचपन जिस घर में डॉगी गुजारते हैं वहीं के होकर रह जाते हैं। पर मोटूराम को जैसे इंतज़ार था अपने लिए नए मालिक का। पुराने मालिक भी उसी मुहल्ले में रहते हैं, पर मोटूराम उनसे नहीं मिलते और नए मालिक पर जान छिड़कते हैं। सोफा पर बैठते हैं, बिस्तर में घुस कर सोते हैं। अब कहीं नहीं जाते। पुराने ने मान लिया है कि उनका था ही नहीं, नए ने मान लिया है कि ये कोई रिश्ता है, जनम-जनम का। 
हर रिश्ता कुछ कहता है। बस आपको उसकी आवाज़ सुननी होगी, भाषा समझनी होगी। 

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