Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
Administrator

एक सत्य कथा

 


एक सत्य कथा
——————
हम कहीं से घूम कर लौटे थे। हम दोनों साथ-साथ काम करते थे। बहुत वर्षों तक हमने साथ काम किया था। हम घूम कर लौटे तो पहले दोस्त के घर ही चले गए। दोस्त की पत्नी ने पता नहीं किस भाव में, क्या सोच कर कहा, “संजय जी, आपकी भी किस्मत संवर गई है। इनके साथ-साथ आपको भी घूमने का खूब मौका मिल रहा है।”
“हां, जिसका दोस्त इतना अच्छा होगा, उसकी किस्मत तो संवर ही जाएगी।” मैंने दोस्त की पत्नी की बात में हामी भरी।
दोस्त की पत्नी ने कहा, “नहीं, आप इनके साथ इनकी गाड़ी में घूम आए, आपके पैसे नहीं खर्च हुए, मैंने इसलिए कहा।”
मैं चौंका। कहीं दोस्त की पत्नी के मन में…
मैं चुप रह गया। फिर कुछ नहीं कहा। कुछ कह ही नहीं पाया। 
ये एक सत्य कथा है। कुछ साल ही साल पुरानी। मैं दिल्ली में था और हम राजस्थान घूम कर लौटे थे। बात ही बात में दोस्त की पत्नी ने ऐसा कह दिया था। क्यों, मुझे नहीं पता। उसके मन में क्या चल रहा था नहीं पता। 
बहुत बार किसी के मन में क्या चल रहा होता है उसे भी नहीं पता होता। 
मुझे याद है बहुत साल पहले मैं अपने छोटे भाई के साथ उसके ससुराल में बैठा था। वहां भाई के साले की पत्नी ने मुझसे कहा, “भैया, अब आप भी दूसरा बच्चा पैदा कर ही लीजिए। वैसे भी आपको बेटी का शौक है।” मेरे भाई की बेटी तब पैदा हुई थी। मेरा एक बेटा, भाई का एक बेटा और एक बेटी। 
मैंने कहा कि एक बेटी घर में हो ही गई है। वही मेरी बेटी है। हम दोनों की।
समझदार आदमी चुप हो जाता है। नासमझ और खुल जाता है। भाई के साले की पत्नी ने कहा, “अरे नहीं, अपनी अपनी होती है। वो जो भी है, आपकी थोड़े न कहलाएगी?”
पता नहीं क्या हुआ, मैं बहुत उदास हो गया। ज़ोर-ज़ोर से रोने लगा। 
मन फट गया। 
आदमी का मन कभी-कभी फट जाता है। सिर्फ कुछ कहे भर से। 
मेरे दोस्त की पत्नी ने कहने को कह दिया था कि आप मेरे पति के बूते मजे ले रहे हैं। मैंने कुछ कहा नहीं। घर आया। मन टूटा हुआ था। तो क्या मेरा दोस्त या मेरे दोस्त की पत्नी के मन में कहीं ऐसा भाव पल रहा है कि संजय सिन्हा पल रहे हैं। 
मैं बहुधा कुछ मना नहीं करता। खाना खा कर गया होता था, दोस्त कहता कि संजय खाना खा लो। मुझे लगता कि कैसे ना कहूं। भूख नहीं होती थी, खा लेता था। उसने कहा वहां चलो। मैं चल देता था। प्यार का भूखा संसार का सबसे बड़ा दरिद्र इंसान होता है। 
लेकिन उस दिन दोस्त की पत्नी का कहा मन में अटक गया। 
मैं घर लौटा। किसी से कुछ कहा नहीं। पर अगले दिन दोस्त के घर नहीं गया। मन में कुछ ऐसा अटका था, जैसे मछली का कांटा कभी गले में अटक जाता है। कई दिन बीते। दोस्त का फोन आता, मैं बहाने बना देता कि अभी व्यस्त हूं।
बात टलती गई। एक दिन दोस्त की पत्नी का फोन आया। “संजय सिन्हा, आप हमारी दोस्ती के लिए तरसेंगे।”
मैंने कहा कि तरस रहा हूं। अभी तो दिल्ली से बाहर हूं। आऊंगा तो मिलूंगा। 
कई साल बीत गए। मन ही नहीं किया जाने का। अब दोस्त की पत्नी ने फोन किया। हम आ रहे आपसे मिलने। 
“किससे? संजय सिन्हा से? पर संजय सिन्हा तो अब हैं ही नहीं।”
“झूठ मत बोलिए। कल ही हमने आपको देखा है।”
“आपने जिसे देखा वो संजय सिन्हा नहीं हैं। वो वाले तो बिल्कुल नहीं जो कभी थे।”
“कैसी बातें कर रहे हैं?”
रिश्ते जोड़ने से पहले सौ बार सोचना चाहिए। तोड़ने से पहले हज़ार बार। अब वो कहां जुड़ेगा? 
मन का दूध जो फट गया तो चाहे पनीर बना कर खा लें, वो दूध दुबारा दूध नहीं बन सकेगा। मन के दूध को फटने से बचाइएगा। हर आदमी की ज़िंदगी में सिर्फ कुछ 'शब्द' को कारण कुछ खोए रिश्तों की अपनी सत्य कथा होती है। ये मेरी सत्य कथा थी।
रिश्ते खो जाते हैं। फिर लौट कर नहीं आते। बहुत से लोगों को लगता है कि वक्त हर जख्म भर देता है। संजय सिन्हा का ज्ञान- वक्त जख्म नहीं भरता है, जख्म वक्त के आगे समर्पण कर देता है।


Powered by Froala Editor

LEAVE A REPLY
हर उत्सव के अवसर पर उपयुक्त रचनाएँ