Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
Administrator

गरीबी जुनूनी संघर्षशील बनाता

 
गरीबी जुनूनी संघर्षशील बनाता है। अमीरी चाटुकारिता आरामतलबी सिखाता है। वैसे भी अब देश की आज़ादी के संघर्ष का समय नहीं है कि गणेशशंकर विद्यार्थी जैसे लोग मिलें । भ्रष्टाचारियों सांप्रदायिक ताकतों को आप जैसे पत्रकारों ने पदच्युत कर ही दिया है तो अब अवसर है उत्सव मनाने का। देश के विकास में भाग लेने का। न कि अपने को हतभागी समझने का । मुट्ठी भर जो भ्रष्टाचारी सांप्रदायिक शक्तियां बची हुई उनके लिए ईडी और विष्णु शंकर जैन ही काफी हैं।
Sanjay Sinha उवाच
गुबार देखते रहे
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1988 में भोपाल से दिल्ली के लिए चला था तो मन कर रहा था कि ट्रेन में ही सभी को बता दूं कि मुझे ‘जनसत्ता’ में नौकरी मिल गई है। मैं पत्रकार बन गया हूं। इंडियन एक्सप्रेस बिल्डिंग के भीतर संजय सिन्हा बैठेंगे, सोच कर मन गुदगुदा रहा था। 
राजीव गांधी प्रधान मंत्री थे। पूरा देश इंक्लुडिंग संजय सिन्हा उन्हें चोर मानते थे। यही बताया गया था। अखबार यही छापते थे।
रेडियो लाइव शो में बच्चे ने कविता के नाम पर यही सुनाया था- “गली-गली में शोर है…।”
हम प्रोग्रेसिव थे। किसी से डर नहीं लगता था। कोई रोकता, टोकता तो कह देते, पत्रकार हैं।  
हमें बताया गया था, पढ़ाया गया था, समझाया गया था कि पत्रकार सरकार की खिंचाई करता है। हुक्मरान को आंख दिखलाता है। पत्रकार हक दिलाने के लिए लड़ता है।
दिल टूटा था 1989  में, जब हुक्मरानों को आंख दिखलाने वाला पाठ सिखाने वाले सिस्टम ने हक के लिए हड़ताल पर लोगों प्रलोभन दिया। कहा कि हड़ताल तोड़ोगे तो एक्स्ट्रा मिलेगा, नहीं तो भूख और बेरोज़गारी।
समझ में आया था, सवाल सरकार से पूछना है मालिकों से नहीं।
हमने सरकार के खिलाफ लिख-लिख कर ‘उन्हें’ पद से हटवा दिया था। हमने छवि चोर की बना दी थी। 
हमें लगा था, हमने अपना काम किया। सरकार को आंख दिखलाने का काम।
सत्ता बदल गई थी। नई सत्ता आई थी। हमने उसे भी आंखें दिखलाने का काम किया। 
हम एंटी इस्टैबलिशमेंट थे। पैसे ठंडे थे। मिजाज गरम था। हम मिशन पर थे। 
हम लड़ रहे थे। यही कहा गया था।
हमने स्विटजरलैंड से आने वाली पचासों रिपोर्ट को इंगलिश से हिंदी में अनुवाद किया। हमने ही हिंदी वालों को बताया कि स्विटजरलैंड के बैंक में जमा है काला पैसा। आपका पैसा।
हम कुछ थे। हम कुछ और बन रहे थे।
बहुत दिनों तक पता ही नहीं चला कि हम वो कुछ क्यों थे?
बहुत-सी सरकारें हमने बदल दीं। 
फिर वो सरकार आई, जिसकी तलाश थी। फिर हम एंटी इस्टैबलिशमेंट नहीं रहे। क्यों रहते? हमने आंखें बंद कर लीं। मिशन पूरा, आंखें बंद। फिर हमें सिखाया गया डरना। डरना ज़रूरी है। 
बहुत साल बीत गए। पता ही नहीं चला कि मिशन क्या था, किसका था, जिसे हम अंजाम दे रहे थे। 
हमारा कुछ था ही नहीं। हम विरोधी नहीं थे। हम ‘उसके’ विरोधी थे। हम सबके विरोधी थे। उन्हें छोड़ कर, जिनके लिए हम थे। 
फिक्स्‍ड मिशन ड्राइंग रूम में सजाने की वस्तु नहीं। 
जो कभी स्विटजरलैंड की रिपोर्ट अनुवाद करते थे, वो रेसिपी लिखने लगे। इतिहास लिखने लगे। पत्थर तराशने लगे। भाषा ज्ञान लिखने लगे। यात्रा वृतांत लिखने लगे। उन्हें अटपटा नहीं लगा। उन्हें बताया गया था कि लेखक कुछ भी लिख सकता है। बस वो नहीं, जो लिख रहे थे। 
शहर का इतिहास लिखो। पिता की कविता लिखो। ज्ञान लिखो, अज्ञान लिखो। कुछ भी, सत्य छोड़ कर। 
वो लिखने लगे। पहले से अधिक। बे सिर-पैर का। संजय सिन्हा की तरह।
वो द्रोण बन गए। मोह में बंधे द्रोण। याद था, अश्वथामा को ‘गो रस’ की जगह सफेद आटा घोल कर पिलाया गया था। बहुत मुश्किल से ‘गो रस’ पाया है। अब मत लड़ना। किसी से नहीं। लड़ाई खत्म। अमन।
फिर क्या? कुछ तो लिखना होगा। 
मूंग दाल पकाने की विधि। भटकी हुई लड़की की कहानी। 
दिल्ली इतना बड़ा शहर है,  इधर से उधर जाने की कहानी लिखो। कुछ भी लिखो। बस, स्विटजरलैंड के बैंक खातों पर नहीं लिखना अब। वहां की बर्फ पर लिखो। दिल्ली में बारिश हुई, लिखो। लिखो, ठंड बहुत है।
चाहो तो कुछ मत लिखो। सत्ता को काम करने दो। नहीं लिखने के कितने पैसे?
जूठन साफ करो। कहानी सुनाओ। वो कहानियां, जो अनसुनी रह गई हैं। कोई कहानी अनसुनी रहती है क्या? 
कहानियां चलती रहती हैं, रेशम रंग बदल जाता है। 
नया क्या है?  
पानी की जगह नारियल पानी। नारियल पानी पियो। एक नारियल साठ रुपए का। बस। 
किसी से शिकायत नहीं। कुछ भी सही नहीं। कुछ भी गलत नहीं। सब ठीक है। खबरें आबाद हैं। पहला पन्ना, दूसरा पन्ना, तीसरा पन्ना..
सब भरे हैं। कभी एक खाली पन्ना भी बहुत शोर करता था। अब भरे पन्ने भी चुप हो गए। 
बहुत साल पहले लोगों को बताता फिरता था, मैं पत्रकार हूं। अब मुंह छुपाए फिरता हूं। कोई पूछ ही न बैठे कि कहीं पत्रकार तो नहीं? 

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